क्षमा शर्मा

कुछ साल पहले शुरुआत में महीने का दो किलो बाजरा मंगाती थी। एक-दो कबूतर और गौरैया आते थे। फिर पल-पल कबूतर आने लगे। न केवल कबूतर, बल्कि अन्य पक्षी और गिलहरियां दस्तक देने लगीं। कोई और हिस्सा न बंटा ले, इसके लिए आपस में लड़ने भी लगे। बिल्ली भी अपने दो बच्चों के साथ, नीचे पार्क में खड़ी आशा भरी नजरों से देखने लगी कि काश उसे भी कुछ खाने को मिल जाता। धीरे-धीरे कई कौवे आने लगे। जाहिर है, मैं जितने संसाधनों का उपाय कर पा रही थी, वे उनके लिए कम पड़ने लगे। इसलिए बाकियों के लिए भी अलग से रोटी, ब्रेड या बिस्कुट का प्रबंध किया जाता। बची हुई मिठाई भी परोसी जाती। अगर कभी पनीर, खीर, हलवा, इडली बच जाता तो वह भी खिलाया जाता।

इन चीजों की न केवल वे खुद दावत खाते, अपने बाल-बच्चों के लिए भी चोंच भर-भर कर ले जाते। इसमें दूसरे पक्षी भी हिस्सा बंटाते। एक दिन चूंकि में पहले दूसरे पक्षियों के लिए बाजरा रख रही थी और कौवे को उसका खाना देने में कुछ देर हुई तो उसने इसे अपमान समझा। बाजरे में गुस्से से चोंच मार-मार कर नीचे गिराने की कोशिश की। और हाल के दिनों में हद तो यह हो गई है कि अब पूरे दिन बारी-बारी से आकर वे शोर मचाने लगते हैं। इतने निडर भी हो गए हैं कि अब उड़ते नहीं, बल्कि अगर नाराजगी से उन्हें डांटती हूं या बनावटी गुस्सा दिखाती हूं कि तुम्हारा पेट क्या कभी नहीं भरता, तो सिर घुमा कर, आंखों से आंखें मिला बातें सुनते हैं। आवाज के उतार-चढ़ाव को भी पहचानते हैं। आलम यह है कि जब एक पक्षी खा रहा होता है, तो दूसरा लटका उसके जाने का इंतजार करता है। तोते इस मामले में बहुत प्रवीण हैं। वे कर्कश आवाज निकाल कर दूसरे पक्षियों को डराते भी हैं।

एक दिन रोटी बेल रही थी कि झप्प से आवाज सुनाई दी। मुड़ कर देखा तो एक सफेद कबूतर बैठा था। वह पहली बार आया था। नृत्य दिखा कर कुछ खाने को मांग रहा था। एक सवेरे गुरसल अपने शिशु के साथ आई थी। बच्चे ने उड़ना सीखा ही था। उसके नन्हे पंख कांप रहे थे। एक सवेरे तो बस गजब ही हो गया। चकोर आ पहुंचा। वह जोड़े से आया था, मगर उसका साथी सामने के चंपा पर बैठा था। आने वाला नर था या मादा कह नहीं सकती। प्रेम और बिछुड़ने के लिए लोककथाओं, छंदों और दोहों में मशहूर इस पक्षी को सांस रोक कर देखती रही। यह डर भी सताता रहा कि कहीं उड़ न जाए। इस क्रम में हुआ यह कि इस पक्षी से संबंधित कथाओं के सिरे से उसकी भावनाओं की व्याख्या करने लगी और उसकी संवेदनाओं का अहसास करने लगी, लेकिन इसके साथ ही उसके कहीं और उड़ जाने का खयाल भी हावी रहा।

बहरहाल, जिस जगह पर ये पक्षी आते हैं और मैं जहां का मैं वर्णन कर रही हूं, वहां की लंबाई लगभग ढाई फीट और चौड़ाई दस इंच है। मगर यहां तरह-तरह के पंछियों का बसेरा है। विश्व का शायद यह सबसे छोटा चिड़ियाघर होगा। यों भी कहते हैं कि दिल में जगह हो तो उसका दायरा कभी कम नहीं पड़ता। मेरा लगाव इन सबसे जिस तरह हो गया है, वह मेरी संवेदना का हिस्सा हो गया लगता है। अव्वल तो वे सब खुद ही मुझे टोकने चले आते हैं, भले ही कभी मैं किसी अन्य काम में व्यस्त हो जाऊं। लेकिन दूसरी ओर, अगर रोजाना आने वाला कोई पक्षी मुझे नहीं दिखा तो अपने आप ही मेरा मन की तरह के द्वंद्व में उलझने लगता है। सोचने लगती हूं कि किस वजह से वह खास पक्षी आज अब तक नहीं दिखा। हालांकि आमतौर पर हुआ ऐसा है कि यह सब सोचते-सोचते या कुछ ही देर में वह पक्षी आसमान में झूमते हुए मेरे सामने अचानक ही प्रकट होकर जैसे हंसने लगता है।

जिस बाजरे से मैंने बात शुरू की थी, वह अब महीने का दस किलो तक जा पहुंचा है। कुछ सूखे चावल भी डर-डर कर डालती हूं, क्योंकि मेरी एक मित्र ने कहा था कि गौरैया को चावल नहीं खिलाने चाहिए। उसका गर्भपात हो जाता है। क्या मालूम क्या सच! पके चावल भी खिलाती हूं। मगर कौवे के बारे में मालूम है कि जिस खाद्य पदार्थ को उसकी चोंच नहीं तोड़ पाती, वह उसे पानी में भिगो देता है। कई बार यह भी सोचती हूं कि सब पक्षियों की बोलियां अलग-अलग हैं, तो क्या ये सब एक-दूसरे की बानी-बोली को समझते हैं। तो कितनी तरह की भाषाएं जानते हैं! क्या इनमें कभी अपनी-अपनी भाषा की श्रेष्ठता के लिए लड़ाई नहीं होती। यह देख कर भी हैरत होती है कि अलग-अलग प्रजातियों के पक्षियों को किसने मेरे घर का पता बताया है! हालांकि मन ही मन मैं इस बात पर खुश होती हूं कि मैं अपनी संवेदना और बर्ताव से इतने पक्षियों का साथ हासिल कर पाती हूं।