मोनिका भाम्भू कलाना

कुछ दिन पहले अनायास ही मोबाइल फोन में गीत बजाना शुरू किया तो कई पुराने गाने जेहन में उभर आए जो मैंने एक समय बार-बार दोहरा कर मैंने न जाने कितनी बार में सुना था। गानों की धुन तो दिमाग में थी, लेकिन नाम नहीं याद आया। काफी देर बाद ध्यान गया कि इस तरह शिद्दत से गीत मैंने कई साल बाद सुने हैं। इसी सिरे से कई बातें ध्यान में आने लगीं और फिर पता नहीं, कब से शांत पड़ा अपना ब्लॉग खोला और फिर वहां भी पूरी एक शृंखला दिखी, जो न जाने कैसे उत्साह में लिखी जाती थी। कोई भी भाव मन में आया या कुछ सोचने लायक लगा तो लिखना शुरू कर दिया। लिखना रोजमर्रा की जिंदगी का एक हिस्सा हो गया था। तब लिखना एक उपलब्धि सरीखा लगता था। चाहे डायरी हो, कविता, ब्लॉग या लेख हो।

इस तरह रचनात्मकता जिंदगी का हिस्सा जैसा हो गया था। बिना किसी दबाव या तनाव के मन और दिमाग से विचार और भाव कभी कागज पर उतर जाते थे, तो कभी बेहद शांत मन से कुछ सुनने और समझने का सिलसिला चल पड़ता था। लेकिन यह सब व्यक्तित्व को हर पर कुछ नया दे रहा था। मगर आज उन बातों को अगर याद कर रही हूं तो इसका मतलब यह भी है कि जो बातें व्यक्तित्व की खासियत-सी बन गई थीं, अब वैसी बहुत सारी बातें जिंदगी से दूर हो गई हैं या उन्हें अतिरिक्त प्रयास से करना पड़ता है। चीजें इस तरह कैसे खत्म हो जाती हैं या खत्म कर दी जाती है? बेरोजगारी ने कितने शौक खत्म नहीं किए? अनगिनत युवाओं की विशिष्टता को कैसे लील लिया इस तंत्र की जकड़न ने?

यह सही है कि ऐसे काम स्वयं की प्रेरणा से ही होते हैं, लेकिन आखिर कब तक? परिस्थितियां सहज रहती हैं या सोचने-समझने और संवेदनाओं में घुलने के अनुकूल होती हैं, तब प्रेरणा भी कहीं से अनायास भी चली आती है अपने भीतर। लेकिन आज परिस्थितियों के दबाव ने मनुष्य के आत्म को तो पहले ही दमित कर दिया है और बाहरी प्रेरणा जैसी चीज अपने सामाजिक-प्रशासनिक ढांचे में कहीं है ही नहीं। आज भी यह सोचना दिमाग की नसों को हिला देने वाला अनुभव होता है कि कि जो कर रही हूं, वह मेरे लिए कितना सही है! भागना पड़ता है लगातार खुद से, क्योंकि विकल्प जितने कम हैं, जोखिम उतना ही अधिक है और विफलता को लगातार ढोते जाने का यह डर भी कायम रहता है। बहुत सारी जड़ताओं से. भय से दूर होने के क्रम में पीछा आखिर किस-किस से छुड़ाया जा सकता है?

हम जिस समाज और परिवेश में रहते हैं, उसमें बाहरी परिस्थितियों से उपजे प्रत्यक्ष द्वंद्व और भीतरी जद्दोजहद के मनोविज्ञान को समझने की सलाहियत का विकास नहीं हो सका है। कुछ इस वजह से तो कुछ सामाजिक जड़ताओं के दायरे में कैद सोचने-समझने के सलीके की वजह से घिरे हुए व्यक्ति को समर्थन का अभाव एक बड़ी वजह है कि व्यक्ति की तरह के बोझ ढोता रहता है, उसे उतार नहीं फेंकता। इन सबसे जूझता हुआ अकेला असहायबोध से ग्रस्त व्यक्ति, जो उम्र से युवा हैं, मगर टूटा हुआ, हिला हुआ और किताबों से माथा फोड़ता और कुछ न कर पाने के अपराध बोध से सना। उम्र मायने कितनी रखती है। आखिर सफलता व्यक्ति की उम्र न केवल बढ़ाती है, बल्कि उसे युवा, ऊर्जावान और स्वीकार्य भी बनाए रखती है। वहीं संघर्ष में गुजरते साल, निरंतर अवसाद से भरा मन, मानवीय अस्तित्व को संकुचित कर देने वाले अनुभवों से गुजरते हुए व्यक्ति को देख कर लगता है जैसे किसी और की जिंदगी जी रहा हो।

आखिर इन दोनों के बीच क्या कोई और तल संभव नहीं? डर और अवचेतन तक पैठ चुके भय से पीछा छुड़ाने का कोई रास्ता नहीं? पिछले डेढ़ साल से ज्यादा से जो चल रहा है, उस बहाने से न जाने क्या-क्या खत्म होगा। इन दो सालों का हिसाब आखिर कौन देगा? कौन-सी सरकार, किस अदालत में इसका न्याय होगा? लाखों बेरोजगार युवा सालों से जिन नौकरियों के लिए तैयारियों में लगे हैं, उनकी उम्मीद को जिस तरह सरकारों ने वोट का जरिया मात्र समझ लिया, उस पर विचार कब होगा?

जो लोग संघर्ष के समय बहसें करते हैं, नौकरी मिलते ही संरक्षण के लिए उन्हीं सरकारों का सिर झुका कर समर्थन करने लगते हैं। राजनीति यह बात अच्छी तरह समझती है। इसलिए विद्यार्थियों के गुस्से को, उनके हक की आवाज को तवज्जो नहीं दी जाती। हमारी परवरिश, शिक्षा, माहौल, तंत्र और संस्थाएं, भले ही वे किसी स्तर की हों, सबमें खामियां हैं, जो औसत व्यक्ति में भरी जाती हैं। हमें चीजों को ‘बढ़ा कर’ देखना सिखाया जाता है, ‘बड़ा करके’ देखना नहीं। हमारे लिए केवल ‘अपना सच’ ही संपूर्ण और एकमात्र सच है। हमारी दुनिया, हमारी समस्याएं केवल हम तक ही है, इसलिए खुद उनसे निकल कर हम पीछे वालों के लिए वह नहीं रहते जो अब तक थे। हमारा वर्ग और स्थान दोनों बदल जाते हैं। हम समस्याओं के समाधान नहीं खोजते, केवल अपनी दुविधाओं को दूसरे की तरफ धकेल कर संतुष्ट हो लेते हैं। हम संगठित होना नहीं जानते, इसलिए पहले ‘भीड़’ और आखिरकार ‘भेड़’ बनने को विवश होते हैं।