यह परिदृश्य आज बदल चुका है और आज हमारे सामने सत्ताई पृष्ठभूमि में अंग्रेजी है। चूंकि वर्तमान दौर में इंटरनेट और हवाई जहाज ने दुनिया को बहुत छोटा सिद्ध कर दिया है, इंटरनेट का विस्तार देश की स्थानीय बहुभाषिक आबादी में बहुत तेजी से हुआ है, इसलिए वैश्विक भाषा अंग्रेजी आज इंटरनेट केंद्रित बाजार और बहुत हद तक डिजिटल प्रशासन के कंधे पर चढ़कर स्थानीय भाषाओं के संक्रमण की गति को बहुत तेज कर चुकी है। यों भी देखा जाए, तो सिर्फ मोबाइल और कोरोना ने सैकड़ों शब्द न सिर्फ हिंदी, बल्कि हमारी स्थानीय भाषाओं तक में दाखिल कराए हैं और अनेक के अर्थ परिवर्तन किए हैं।

हालांकि भाषा में शब्द के अर्थ का संकोच, विस्तार, परिवर्तन समय और संदर्भ के अनुसार होता रहा है, लेकिन आज के अनेक ऐसे परिवर्तन अर्थ-संगति की दृष्टि से द्वैध उत्पन्न कर रहे हैं। हमारे मोबाइल फोन की बैटरी कमजोर हो, तो ‘चार्ज’ किया जाता है, लेकिन जब इसमें पैसे भरवाने की बात आए, तो यह ‘रिचार्ज’ हो जाता है। जबकि ‘रिचार्ज’ की अर्थ-व्याप्ति में ‘पुन: चार्ज करने’ तक ही सीमित है।

एक दौर था जब ‘वायरल’ शब्द का संदर्भ बहुत नकारात्मक था और इसका व्यापक प्रयोग संक्रामक बीमारियों के संदर्भ में किया जाता था, लेकिन इंटरनेट पर आज अच्छे-खासे पढ़े-लिखे और परिपक्व लोग भी अपने आडियो या वीडियो के साथ ‘वायरल’ होना चाहते हैं, बल्कि ढेर सारे उत्साहित युवा तो सिर्फ ‘वायरल’ होने की लालसा लिए रील बनाने के क्रम में अपनी जान भी जोखिम में डाल रहे हैं।

हालांकि ‘वायरल’ के कारण होने वाले बुखार और हैजा आदि से बचने की प्राथमिकता आज भी सबकी होगी। इसी तरह ‘दबंग’ शब्द भी इसी नकारात्मक अर्थ-छवि के साथ सामने आता था, लेकिन इस शीर्षक के नायकत्व से एक फिल्म बन जाने और राजनीति और सत्ता में गुंडे-बदमाशों की लोकतांत्रिक स्वीकृति ने ‘दबंग’ बन जाने वालों की भी कमी नहीं है और कई संदर्भों में ‘दबंग’ अपने व्यापक सकरात्मकता के साथ व्यवहार में है।

हालांकि लोकतांत्रिकता का ही तकाजा है कि अंग्रेजों के खेल क्रिकेट में सबसे शक्तिशाली भूमिका के वाहक ‘बैटमैन’ अब ‘बैटर’ हो चला है, क्योंकि यहां महिलाओं ने भी अपनी भूमिका सुनिश्चित कर ली है। यह उसी तरह है जैसे ‘चेयरमैन’ के बजाय ‘चेयरपर्सन’ की स्वीकृति मिल रही है। ऐसे में ‘बैटमैन’ और ‘चेयरपर्सन’ जैसे शब्दों की मृत्यु स्वाभाविक है।

निर्मल वर्मा ने कभी लिखा था कि समाज का सत्य और सातत्य भाषा में बचा रहता है। भाषा में नए शब्दों का बनना और अनेक शब्दों का प्रयोग से बाहर होना भी एक सहज प्रक्रिया है, लेकिन डिजिटल दुनिया ने इस संक्रमण को अपनी धार दी है। ध्यान रहे कि हिंदी का बहुत आदर्श शब्द ‘कुशल’ जो व्यक्तित्व के अनेक गुणों का परिमापक है, उसकी उत्पत्ति में एक तरह के नुकीले घास ‘कुश’ को सफलतापूर्वक उखाड़ लेने भर का भाव सीमित था।

जबकि आज ‘कुश’ सहित बड़े-बड़े पेड़ों और पहाड़ों को बुलडोजर से आसानी से उखाड़ दिया जाता है और बुलडोजर को कभी कोई ‘कुशल’ नहीं कहता है। इस क्रम में यह देखना मजेदार होगा कि ‘नेत्र’ और ‘नेता’ दोनों शब्द सहोदर हैं और संस्कृत के ‘नृ’ धातु से बने हैं, जिसका तात्पर्य है ‘नेतृव करना’ या ‘दिशा दिखाना’।

यह अलग बात है कि आज शरीर में जो आंख का स्थान है, उस भाव में समाज के लोकप्रिय अर्थों में नेताओं की स्थिति नकारात्मक है। लेकिन फिर भी नेतृत्व शब्द को सिर्फ राजनीति तक को सीमित करना ठीक नहीं होगा, क्योंकि आज कोई संस्थान, प्रशासनिक इकाई, सामाजिक समूह और व्यवस्था चल रही है, तो उसके पीछे किसी नेता की सोच या भूमिका जरूर होगी।

दरअसल, भाषा की जो सत्ताई अधिक्रमिता बनती है या बनाई जाती है, उसमें एक उच्च वर्ग तो है, जो इन बदलावों को देखता या इनके मध्य से गुजरता है, लेकिन अभी भी दूरस्थ समाजों का एक बड़ा तबका है, जिसके समक्ष यह सब कुछ एक हिंसक भूमिका के साथ आता है। गांव का एक व्यक्ति, जो मुंबई में कोई निजी नौकरी करता था और अपने सेठ के साथ की करीबी को सिद्ध करने के लिए भोजपुरी में जो बताया था, उसका हिंदी अनुवाद यों होगा- ‘मेरे सेठ बात करते हुए जब अंग्रेजी में हंसे, तो मैं समझ गया।’

शायद गांधी ने सौ साल पहले इसी वर्ग के लिए कहा था कि ‘सारा हिंद गुलामी में घिरा नहीं है। जो पश्चिमी शिक्षा पाए हैं और उसके पाश में आए हुए हैं, वे ही गुलामी से घिरे हैं।’ असल में कबीर का नीर आज इंटरनेट हो गया है और इसका विस्तार हर वर्ग तक हो रहा है, साथ ही भाषाई संक्रमण भी।