महेश परिमल

अपना घर लेने के चार साल बाद उसमें कुछ नया काम शुरू हुआ। इसी के साथ शुरू हुई आरी-रंदा चलने की आवाज, कहीं हथौड़ी की ठक-ठक, तो कहीं कीलें ठोंकने की आवाज। कुछ लोगों के लिए ये आवाजें शोर हो सकती हैं, लेकिन मुझे यह ध्वनि सुकून देती है। मुझे अपने अतीत में ले जाती हैं। पिताजी बढ़ई थे। घर में इस तरह के काम अक्सर होते रहते थे।

दो कमरों का घर था। पिताजी दूसरे घरों के मिले काम को बरामदे में ही अंजाम देते थे। उनके साथ कुछ सहायक तो होते ही थे, पर सहायक के न आने पर हम भाई पिताजी का सहयोग करते थे। बचपन से ये आवाजें हम सबके भीतर कैद होकर रह गई हैं। ये आवाजें हमारी रोजी-रोटी से वाबस्ता हैं। ऐसे में वरिष्ठ नागरिक की उम्र तक अतीत के चलचित्र चलने लगे हैं। इन आवाजों के बीच आज बचपन कुलांचे मार रहा है।

सचमुच जीवन बहुत छोटा है। पिताजी के साथ काम करते हुए हमें नहीं लगता था कि हम उनका सहयोग कर रहे हैं। उस समय हमारा यही उद्देश्य होता था कि किसी भी तरह पिताजी की सहायता हो जाए। उन्हें सहायकों की कमी महसूस न हो। यह भी सच है कि हम सहायकों की तरह काम नहीं कर पाते, पर पिताजी की अपेक्षा यही होती थी कि हम कुशल कारीगर बनें। इसलिए जहां हमसे कोई गलती होती, तो उनके हाथ में जो भी हथियार होता, वे उससे वार करने में भी नहीं चूकते।

हम भाइयों के शरीर पर कई निशान मिल जाएंगे। आज वे निशान हमें यह बताते हैं कि किसी कार्य में अकुशल होना कितनी बड़ी त्रासदी है। हम भाइयों ने पिताजी की परंपरा को आगे नहीं बढ़ाया, पर आज भी इस तरह का कोई काम होता है, तो हम छोटे-मोटे काम खुद ही कर लेते हैं। उसमें हमें जरा भी संकोच नहीं होता। कई बार तो हम पड़ोसियों के यहां भी काम कर देते हैं, तो उन्हें आश्चर्य होता है कि हमने कैसे कर लिया!

कहा जाता है कि जो कुछ सीखा हुआ होता है, वह अवचेतन में हमेशा उपस्थित रहता है। समय आते ही वह चेतन हो जाता है, हमें सक्रिय कर देता है। एक अनजानी राह में हम चल निकलते हैं। अपना काम कर जाते हैं। हम भाई आपस में मिलते हैं, तो इस तरह की बातें कर अपने अतीत की जुगाली भी कर लिया करते हैं। उस अतीत में पिताजी की संघर्ष-गाथा अधिक होती है, हमारे मस्तियों का जिक्र नहीं के बराबर।

पिताजी किस तरह से बड़े परिवार को पाल लेते, इस बीच कई बार दुश्वारियां भी आतीं, पर वे हिम्मत नहीं हारते। आज हमें छोटी-सी समस्या भी मुश्किल में डाल देती है। इसका सीधा आशय है कि हम संघर्षों के ढांचे में पूरी तरह फिट नहीं हो पाए। हमारा संघर्ष अधूरा रहा।

समय के साथ बढ़ई के काम में अंतर आ गया है। जिस काम को करने में घंटों लगते, वह काम अब चुटकियों में होने लगा है। तब रंदे से लकड़ी को छीलने का काम होता, जिससे लकड़ी पूरी तरह चिकनी हो जाती थी। रंदे से लकड़ी का ऊपरी भाग निकलता, जिसे हम ‘छिलपा’ कहते थे, वह चूल्हे में आग जलाने के काम आता। अब छिलपे दिखाई नहीं देते। अब लकड़ी को जोड़ने के लिए फेविकोल लगाया जाता है, जो पहले नहीं था। अब सारा काम प्लाई का है, जिस पर अच्छी डिजाइन बनाई जा सकती है।

आरी का स्थान अब कटर ने ले लिया है। पटासी, जंबू का काम ही नहीं है। लकड़ी के फ्रेम को कसने वाला शिकंजा अब कहीं नहीं दिखता। इस तरह से धीरे-धीरे सारे हथियारों का लोप हो रहा है। वक्त को चलने की आदत होती है। वह अपने साथ नए जीवन मूल्यों को भी अपनाता चलता है। इसी तरह के परिवर्तन अब दूसरे कामों में भी दिखाई देने लगे हैं। अब काम तेजी से और जल्दी होने लगे हैं। महीनों की दूरियां सप्ताह तक सिमटने लगी हैं।

यह सच है कि अतीत हमेशा सुहाना लगता है। पर अतीत के सहारे हमारी गुजर भी नहीं हो सकती। हमें नए जीवन मूल्यों को अपनाना ही होगा। नए आविष्कारों को स्वीकार करना होगा। इसके साथ आई नई चुनौतियों का भी सामना करना होगा। आज की पीढ़ी को अपने अतीत से कोई लेना-देना नहीं है। वह जानना भी नहीं चाहती कि उनके पुरखों का अतीत कैसा था!

वे पूरी तरह आज में जी रहे हैं। व्यस्त और अपने काम में तल्लीन। हम बुजुर्गों का अतीत हमारा है। वह भले उस समय बुरा लगता हो, पर आज प्यारा लगता है। युवा उसे भले न स्वीकारें, पर हम उसे अपने भीतर बसाते ही रहेंगे। देखा जाए, तो उसी अतीत ने हमें आज तक संभाला हुआ है। आज भले हम आधुनिक होकर मोबाइल चला लें, पर अतीत जब भी झांकता है, तो सारी यादें बाहर आने को आकुल हो जाती हैं।