कला, कौशल और शिक्षा मानव सभ्यता और सांस्कृतिक अभिरुचि के परिचायक हैं। उस दिन घर का नल टपकने लगा, तब पलम्बर को बुलाया गया। वह नया नल लगाने की प्रक्रिया में जिस सफाई से नल के चारों ओर धागा लपेट रहा था, उस पर मेरा ध्यान गया। मैंने कहा कि ‘बड़ी सफाई से धागा लपेट रहे हो भैया…!’ उसके चेहरे पर खुशी के साथ विषाद दोनों भाव बारी-बारी से तैर गए। जवाब आया- ‘हम बनारसी साड़ी बिनते थे। धागे का ही काम बचपन से देखा। छोटे थे तो ननिहाल में रहे! दोनों मामा को देखते-देखते हमारा भी हाथ खुल गया। हम भी बनारसी साड़ी बिनने लगे।’
अतीत की यादों में खोया महिंदर बोल रहा था- ‘पान की डिजाइन, हाथी-घोड़े, डंडी, पेड़, टहनी-फूल…!’ मुझे लग रहा था कि एक से एक बहुरंगी चमचमाती बनारसी साड़ियां आंखों के सामने खुलती जा रही हैं। उसने करीब चौदह साल यह काम किया। मैंने कहा- ‘ओह… बुनकर से पलम्बर… क्या संयोग है!’ मगर उसने आगे बताया- ‘लूम आ गए तो हाथ से बनारसी साड़ी बुनने वाले खाली हो गए। अब असली बनारसी कहां! पहले करीब दस दिन में एक साड़ी उतरती थी तो दाम अच्छे मिलते थे और मालिक सबको मुनाफा बांट देता था। किसी तरह दाल-रोटी चल रही थी। लूम के साथ ही नकली जरी की नायलॉन मिली कम दाम वाली बनारसी साड़ी लोगों को भाने लगी। जब कठिन हो गया तो दिल्ली आ गए, पलम्बरी का काम सीखा। पर मन तो वहीं है, बनारस के सिंधौरा बाजार में, जहां घर-घर में बनारसी उतरती थी। अब सब बिखर गया है। कलाकार को कला का सही दाम मिलता तो यहां क्यों आते!’
परंपरागत कलाओं की नियति कुछ इसी तरह की है। वस्त्र उद्योग और बुनकरी से लेकर परंपरागत पॉटरी, कठपुतलियां, आभूषण, खिलौने, सिरकी, बांस का सामान बनाने का कौशल भरा काम करने वाले अब खाली हो रहे हैं और मजदूरी या इसी तरह के धंधे अपना रहे हैं। बाजार उन चीजों का नकली रूप कम दामों पर उपलब्ध करवा रहा है और आम उपभोक्ता उसी में मस्त है। जो कुशल कारीगर रोजी-रोटी न चलने के कारण बेकार हो गए हैं, उनका कहां सदुपयोग किया जाए? यह विभिन्न प्रकार के कौशल समाप्त कर देने वाली वाली स्थिति बन गई है।
हाल ही में एक जगह कौशल विकास के मुद्दे पर बात करने के लिए बड़े उद्योगपतियों के साथ तमाम शिक्षाविद और गैरसरकारी संगठन के प्रतिनिधि जुटे थे। भारत जैसे बहुसंख्यक जनसंख्या वाले देश में श्रम का नियोजन इस रूप में किया जाए तो इससे अच्छी बात और कोई नहीं हो सकती। इलेक्ट्रीशियन से लेकर वेल्डिंग करने के क्षेत्र में हुनर को विकसित करने की बात की जा रही थी। और किन्हीं कौशल विकास केंद्रों का नाम लेकर उससे वेल्डिंग कार्य में कुशलता हासिल किए कारीगरों के विषय में यह भी बताया गया कि अधिकतर लोग विदेशों में सेवाएं दे रहे हैं। मुद्रा और श्रम नियोजन की दृष्टि से यह उचित ही है। लेकिन हमारी उस युवा विराट जनसंख्या को देखते हुए ये प्रशिक्षण केंद्र मुट्ठी भर हैं।
उच्च शिक्षा में भी कौशल विकास को अहमियत देने की बात निरंतर की जा रही है। लेकिन शिक्षा के माध्यम और स्थितियों को देखते हुए एक विराट प्रश्न चिह्न वहां भी मौजूद है। उस दिन कक्षा से बाहर निकलते हुए एक छात्रा ने मुझे रोका और बेहद सकुचाते हुए कहा कि वह बहुत दिनों से बात करना चाहती थी। उसकी आंखों में आंसू भर आए थे। वह गणित विशेष पाठ्यक्रम में पढ़ रही थी। दिल्ली के बाहरी ग्रामीण क्षेत्र से संबंध रखने वाली उस छात्रा ने सरकारी स्कूल से पढ़ाई कर अच्छे अंक लेकर दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित कॉलेज में न जाने कितने सपने लेकर प्रवेश किया था।
लेकिन शिक्षा का माध्यम हिंदी न होने के कारण यहां पूरी तरह से खुद को मिसफिट महसूस कर रही थी और अजीब पशोपेश में थी। उसने बताया कि उसके घर के आसपास के लोग उसके पिता को अक्सर कहते हैं- ‘छोरी को फैशन वाले कॉलेज में पढ़ा कर क्या करना है! क्यों पैसा बरबाद कर रहे हो! हाथ पीले करो इसके!’ ऐसे में जिस पाठ्यक्रम में उसने प्रवेश लिया है, उसकी पढ़ाई वह संभाल नहीं पा रही। पढ़ना तो वह हिंदी चाहती है, पर गणित में दाखिला हो रहा था तो उसने ले लिया। पिता की आर्थिक स्थिति के चलते उसे फीस जुटाना भी भारी पड़ रहा है। अब वह क्या करे!
दरअसल, जिन जगहों से विद्यार्थी आ रहे हैं, वहां अगर उन्होंने हिंदी माध्यम से पढ़ाई की है, तो दिक्कत होने की पूरी संभावना है। हालांकि उनके लिए अतिरिक्त कक्षाओं का भी प्रबंध किया गया है। पर भाषा और माहौल को लेकर जो कुंठा मन में घर कर जाती है, वह आसानी से पीछा नहीं छोड़ती। जिस तरह नीति बना कर कलाओं का संरक्षण और देश-विदेश में नियोजन उन्हें जीवित रखने के लिए अनिवार्य है, उसी प्रकार वास्तविक कौशल केवल शुष्क पाठ्यक्रमों द्वारा विकसित नहीं किया जा सकता। आवश्यकता है प्रतिभाओं के उचित आकलन और उन्हें अवसर देने की। प्रश्न केवल शिक्षा-माध्यम का ही नहीं है, बल्कि प्रतिभाओं को मिटने से बचाने का भी है।