उनका फोन अक्सर आता रहता है। रिटायरमेंट के बाद मुंबई में वे घर पर अकेले रहते हैं। पत्नी का देहांत कई वर्ष पहले हो गया था। एक बेटा अमेरिका में और दूसरा दुबई में अपने-अपने परिवार के साथ मगन हैं। साहित्य में रुचि होने के कारण वे साहित्यिक पत्रिकाएं मुझसे मंगा लेते हैं और मैं उन्हें कभी निराश नहीं करता। पिछली बार जब उनका फोन आया तो संयोग से मैं मुंबई में ही था। मैंने उन्हें बताया तो वे बहुत खुश हुए। ‘रात का खाना मेरे साथ ही खाना’ -उन्होंने मुझसे अनुरोध किया। मैं मुंबई के अपने हमउम्र मित्रों को निराश छोड़ कर रात लगभग आठ बजे उनके घर पहुंचा। वहां देखा कि दरवाजे पर और अन्य कई जगह फूलों से घर को सजाया हुआ है। एक मेज पर एक छोटा केक और साथ में मोमबत्तियां रखी हैं। ‘आज मेरा जन्मदिन है और मैंने अस्सी वर्ष पूरे कर लिए हैं।’ नसरुद्दीनजी ने मुझसे मुखातिब होकर कहा। ‘तुम्हें मैंने इसीलिए जिद करके बुलाया कि इस मौके पर मैं अकेला नहीं रहना चाहता था।’ मेरे कंधे पर हाथ रख कर उन्होंने खुशी जाहिर की।

मैंने पूछा कि घर की सजावट और इस केक का इंतजाम कैसे किया। वे बोले- ‘बेटा मुझसे बेइंतहा मुहब्बत करता है। उसने याद रखा कि आज मेरा जन्मदिन है। नेट-बैंकिंग से उसने अमेरिका से ही यहां की मशहूर बेकरी को केक का आर्डर दे दिया और साथ में उन्हें सजावट करने के लिए भी कहा।’ मैंने कहा- ‘आइए, केक काटें’। वे अपना आई-पैड मुझे देते हुए बोले, ‘जब मैं केक काटूं तो आप इस आई-पैड से इसकी तस्वीर मेरे बेटे को भेज पाएंगे।’ नसरुद्दीनजी ने कहा।

मैंने उन्हें बताया कि इसे फेसटाइम कहते हैं और मैं भी सिंगापुर में अपने बेटे और बहू के साथ ऐसे ही आई-पैड से सीधे बातचीत कर लेता हूं। नसरुद्दीनजी के पोतों ने ‘हाय दादू’ कहा और बेटे-बहू ने आई-पैड पर ही उनका अभिवादन किया। केक अच्छा था। खाते हुए मैंने उन्हें सुझाव दिया कि इस उम्र में अब उन्हें अपने बेटों के पास रहना चाहिए। उन्होंने कहा कि ‘मेरे दोस्तों का अनुभव कुछ अच्छा नहीं रहा। जब तक बेटों की संतान बड़ी नहीं होती और उसके लालन-पालन में हम बुजुर्गों की जरूरत रहती है, तब तक तो ठीक रहता है। जब वे स्कूल जाने लायक हो जाते हैं तो बेटे अपने बूढ़े मां-बाप को वापस भारत भेज देते हैं। मेरे पड़ोसी के साथ ऐसा ही हुआ, इसलिए मैं यहीं रहना पसंद करता हूं। समान विचारों वाले लोग वहां नहीं मिलते। यहां आप जैसे मित्र हैं, बेशक कम हैं। जैसे आज कोई नहीं आया, तो मैंने आपको बुला लिया।’ मैंने उन्हें सुझाव दिया कि कुछ समय के लिए तो आप अपने बेटों के पास जा ही सकते हैं। उन्होंने कहा- ‘मैं जाता हूं, लेकिन बीस-पच्चीस दिनों में ही मन भर जाता है। अपना वतन मुझे वापस बुलाता है। हालांकि देखा जाए तो यहां मेरा कौन है! पत्नी और मां-बाप बहुत पहले गुजर गए। एक बहन थी, जिसका इसी माह इंतकाल पाकिस्तान में हो गया।’ मैंने हैरानी से पूछा- ‘पाकिस्तान में!’

‘दरअसल, बंटवारे के वक्त मेरी बहन हमारे कुछ रिश्तेदारों के साथ पाकिस्तान चली गई थी। मैं यहीं रह गया। मैंने कई बार उसे ढूंढ़ने की कोशिश की, लेकिन विफल रहा। दुबई में हम लोगों के धर्मगुरु का एक कार्यक्रम होता है। मैं तो नहीं मानता, लेकिन हमारी बिरादरी के लोग इस बार जिद करके मुझे भी ले गए। वहां अलग-अलग देशों से लोग उस कार्यक्रम में शरीक होने आते हैं। वहां के आयोजक विभिन्न देशों से आए लोगों के नामों की सूची एक बड़े बोर्ड पर लगा देते हैं। भारत से आए लोगों की सूची में मेरा नाम था। संयोगवश मेरी बहन पाकिस्तान से उसी कार्यक्रम में भाग लेने आई थी। उसने मेरा नाम पढ़ लिया और वह मुझे ढूंढ़ते हुए वहां भारत के कैंप में आई। सभी भारतीय अलग-अलग मेजों पर बैठ कर दोपहर का खाना खा रहे थे। अड़सठ वर्ष बाद हमारी शक्लों को पहचानना मुश्किल था। वह मेरी मेज के पास से गुजरी और आगे चली गई। थोड़ी देर बाद वह वापस लौटी और मुझसे मुखातिब होकर बोली- ‘तू मेरा भाई है।’ मैंने अपना नाम बताया और वह मेरे गले मिल कर फूट-फूट कर रो पड़ी। हमने लगभग दो घंटे तक बातें की। फोन नंबर और घर के पते लिए। उसे कराची के लिए उसी दिन फ्लाइट पकड़नी थी।’

मैंने उत्सुकतावश पूछ लिया कि क्या वे फिर पाकिस्तान उससे मिलने गए। नसरुद्दीनजी उदास हो गए और बताया कि उसकी उम्र उनसे मात्र दो वर्ष कम थी। कराची पहुंचने के एक सप्ताह बाद उसके बेटे का एसएमएस आया कि वह इस दुनिया में नहीं रही।
दरवाजे पर मुझे छोड़ने जब नसरुद्दीनजी नीचे आए तो मुझे उनकी आंखों में अपनी भावी तस्वीर नजर आई!