अलका आर्य
महिला अधिकारों और अभिव्यक्ति की आजादी की पुरजोर हिमायत करने वाली कवयित्री सिमिन बहबहनी से ईरान में शासन करने वाली ताकतें कितना खतरा महसूस करती थीं, इसके लिए दो वाकयों का जिक्र पर्याप्त होगा। 1990 में उन्हें एक काव्य सत्र में बोलना था। जब वे बोलने गर्इं तो सुरक्षा बलों ने उनसे माइक्रोफोन छीन लिया, बत्तियां बुझा दीं और उनकी आवाज को दबाने के लिए शोर मचाने लगे। इसी तरह 2002 में सिमिन को पेरिस में अपनी कविताएं पढ़ने के लिए जाना था। जब वे हवाईअड्डे पर पहुंचीं तो सुरक्षा अधिकारियों ने उनका पासपोर्ट जब्त कर लिया, ढेरों सवाल किए। बाद में जाने की इजाजत तो दे दी गई, पर वे उस कार्यक्रम में हिस्सा नहीं ले सकीं।
कई साल पहले मैंने जब उनके बारे में जाना तो लगा कि वक्त के एक मुश्किल दौर में भी चुनौतियों के सामने घुटने टेकने के बजाय उनसे मुठभेड़ करना उनका शगल-सा बन गया था। उनका जन्म 19 जुलाई 1927 को तेहरान में हुआ था। उन्होंने बारह वर्ष की आयु में कविता लिखनी शुरू की। बीसवीं सदी में फारसी साहित्य के क्षेत्र में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान है। सिमिन महिलाओं के अधिकारों की संरक्षक थीं और उन्होंने कविता के माध्यम से 1979 में ईरान की क्रांति के समय वहां के लोगों को प्रोत्साहित किया था। लोगों के बीच आज भी जून 2009 में ईराक में संपन्न विवादास्पद राष्ट्रपति चुनाव की स्मृतियां बनी हुई हैं। इस चुनाव के विरोध में होने वाले प्रदर्शनों के सर्मथन में बयासी वर्षीय सिमिन भी पीछे नहीं थीं। बागी शेरनी की दहाड़ में मानवता, अहिंसा, इंसाफ ,स्त्री को अधिकारों के जरिए ताकत प्रदान करने वाले स्वर साफ सुनाई देते थे।
सिमिन को तानाशाही के विरोध में उनकी कविताओं की सरकारी सेंसरशिप का सामना करने के साहस के लिए ईरान के लोगों ने ‘ईरान की शेरनी’ के खिताब से सम्मानित किया था। वे खून से सनी राजनीति के खिलाफ बोलने की जुर्रत करने पर प्रताड़ित भी हुर्इं, पर खामोश रहना उन्हें कुबूल नहीं था। लेकिन आज जब इराक, इस्राइल, फिलस्तीन में खून बह रहा हो, निहत्थे नागरिक, महिलाओं और मासूम बच्चों को धार्मिक कट्टरता और राजनीतिक मंसूबों को साधने के लिए निशाना बनाया जा रहा हो, तो एक बागी आवाज का खामोश हो जाना कुछ ज्यादा ही तकलीफ पहुंचाता है। नोबेल साहित्य पुरस्कार के लिए दो बार नामांंिकत सिमिन बहबहनी ने बीबीसी को करीब ढाई साल पहले दिए गए एक साक्षात्कार में कहा था- ‘अब तक मैंने वही कहा है, जो मुझे कहना चाहिए था। मैंने हमेशा कहा है कि मैं किसी को भी मार डालने के खिलाफ हूं। मैं हत्या विरोधी हूं।’
ईरान की सिमिन की तरह अपने वतन की एक शेरनी इरोम शर्मिला हैं। वे तकरीबन चौदह साल से मणिपुर से सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून वापस लेने की मांग को लेकर अनशन पर हैं। दुनिया अब शर्मिला को सबसे लंबी भूख हड़ताल करने वाली महिला के तौर पर पहचानने लगी है। पिछले साल उन्नीस अगस्त को जब ‘ईरान की शेरनी’ के दुनिया से चले जाने की खबर आई, उसी दिन इंफल के एक सत्र अदालत ने इरोम को आत्महत्या के आरोप से बरी कर रिहाई के आदेश जारी कर दिए और कहा कि इरोम का विरोध प्रदर्शन राजनीतिक मांग पर है; उनके पहले के व्यवहार को देख कर लगता है कि वे इसे तब तक जारी रखेंगी, जब तक इसका समाधान नहीं हो जाता। लेकिन लगता है कि हमारी लोकतांत्रिक सरकारों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जेल से छूटने के बाद इरोम ने फिर से उसी मुद्दे पर अपना पहले वाला रुख कायम रखा और पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया।
इरोम को जब पहली दफा हिरासत में लिया गया तो वे अट्ठाईस साल की थीं और अब उनकी उम्र बयालीस साल है। दमनकारी सरकारी नीति की मुखालफत करने के एवज आजाद भारत में सबसे लंबी अवधि से उनके हिरासत में रहने का इतिहास ही बन चुका है। सिमिन ईरान की शेरनी थीं तो इरोम चानू शर्मिला अपने मुल्क की।
करीब एक दशक पहले पूर्वोत्तर की यात्रा के दौरान मैंने अपना ज्यादातर वक्त मणिपुर के गांवों में गुजारा और उस दौरान कई मजबूत महिलाओं से मुलाकात हुई थी। इंफल जिस दिन पहुंची तो पता चला कि आज इंफल बंद रहेगा। स्थानीय अखबार पढ़े और किसी तरह टेलीग्राफ अखबार के संवाददाता का फोन नंबर हासिल किया। उसने बताया कि यहां कई महिला संगठन भी बंद के आह्वान में सक्रिय भूमिका निभाते हैं। याद आ रहा है कि कैसे मणिपुर के मनोरमा देवी कांड के बाद वहां की कुछ महिलाओं ने केंद्र सरकार के खिलाफ इंफल में सेना मुख्यालय के सामने निर्वस्त्र होकर अपना तल्ख विरोध दर्ज कराया था। इन बागी महिलाओं की हिम्मत देख सब दंग थे। मुझे कई बार लगता है कि मणिपुर की मिट्टी को वहां की महिलाओं ने अपनी बहादुरी के कारनामों से सींचा है।
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