अरविंद कुमार

मुझे याद है छब्बीस-सत्ताईस दिसंबर 1973 को ‘समांतर कोश’ के विचार की वह न भुला सकने वाली रात। ‘माधुरी’ व्यावसायिक फिल्म पत्रिका तो थी, लेकिन धर्मेंद्र-हेमामालिनी के रूमानी किस्से हम नहीं छापते थे। फिर एक अजीब-सी ऊब होने लगी। मैं सोचता कि अक्सर अठारह घंटे रोज व्यस्त रहने के बावजूद मेरी अपनी उपलब्धि क्या है? बस यही कि मैं इस पार्टी में शामिल हुआ, वह प्रीमियर देखा! क्यों और कब तक? यही सवाल मुझे मथने लगे। निरर्थकता बोध ने मुझे ग्रस लिया।
उस रात हम लोग किसी पार्टी से देर से लौटे थे। मेरी आंखों में नींद नहीं थी। मन में वितृष्णा भरी थी। मन में वह सपना फिर कौंधा- हिंदी में थिसारस का सपना। हिंदी में उस जैसी किताब की कमी अखरने वाली थी। तभी विचार आया कि किसी ने वह किताब नहीं बनाई। तो मतलब है कि मैं ही वह किताब बनाने के लिए पैदा हुआ हूं! सपना मेरा है तो इसे कोई गैर क्यों पूरा करेगा! सफर मेरा है, मुझे ही तय करना होगा! रात भर मैं अनोखी प्रसन्नता से भरा रहा। और सत्ताईस दिसंबर 1973 की सुबह मुंबई की मालाबार हिल की ऊंचाई पर पानी की टंकी पर बने अनोखे हैंगिंग गार्डन में कुसुम से मैंने सपने की बात की। बुलंदी पर खड़े होकर बुलंद बातें करने, बड़ी योजनाएं बनाने का बिल्कुल सही समय ऐसा ही होता है। ऊपर खुला आसमान फैला था। नीचे चौपाटी का समुद्र तट था। मैरीन ड्राइव के धनी आवास थे। हम उन सबसे ऊपर थे। वातावरण ने हमें नए रास्ते पर धकेलने की दुरभिसंधि कर रखी थी।

मैंने कुसुम से यह भी साफ कर दिया कि हो सकता है, इस काम के लिए मुझे नौकरी छोड़नी पड़े। आर्थिक तंगियों का सामना करना पड़ सकता है। अक्सर वे तुरंत ‘हां’ नहीं करतीं। उस सुबह मेरी बात सुनते ही उन्होंने ‘हां’ कर दी। हम दोनों इस अहसास से ओतप्रोत हो गए कि हम कोई बड़ा काम करने जा रहे हैं। चारों ओर की हर चीज में हमें ‘एडवेंचर’ पर निकलने का रोमांच और रोमांस दिखाई दिया। पर मेरी उम्र, मानसिकता और परिस्थिति डॉन किहोटे जैसे ‘एडवेंचरिज्म’ की नहीं थी। इसके बाद हमने अपने पक्ष में मजबूत बिंदुओं को गिना। दिल्ली में मॉडल टाउन में हमारा साझा घर था। पिताजी, अम्मा, छोटा भाई सुबोध सपरिवार वहां रहते थे। मकान का कुछ हिस्सा किराए पर हुआ करता था। वह खाली हो गया था। हमें एक कमरा मिल सकता था। मकान में एक म्यानी भी थी। वहां हम किताब का काम कर सकते थे।

फिर हमने चुनौती वाले बिंदुओं पर गौर किया। हमारे दो बच्चे थे, जो पढ़ रहे थे। जानबूझ कर हम उनके जीवन को दांव पर नहीं लगाना चाहते थे, न ऐसा करने का हमें अधिकार था। हम पर कुछ कर्ज था, जिसका बोझ उतरने का समय था अप्रैल 1978। उसी साल बच्चे पढ़ाई के ऐसे दौर में पहुंचने वाले थे कि हम शहर बदल सकें। घर रईसों की बस्ती नेपियन-सी रोड पर जरूर था, पर हम रईस नहीं थे। यह घर हमें कंपनी से मिला था। खैर, सारे कर्ज उतर गए। अब खर्च कम करने और बचत बढ़ाने के तरीके सोचे गए। प्रॉविडेंट फंड के नाम पर तनख्वाह का दस प्रतिशत कटता था। फैसला लिया गया कि अब इसे बीस प्रतिशत कटवाया जाए। हमारा लक्ष्य कुल दो लाख रुपए था। यह किसी तरह पूरा नहीं हो रहा था। फिर ग्रेच्युटी से मिलने वाली संभावित राशि इसमें जोड़ दी गई। दिल्ली में थोड़ा-बहुत काम भी कर लेंगे। शायद कहीं से कोई अनुदान मिल जाए! यों भी, मैंने अनुमान लगाया था कि हम दोनों मिल कर किताब दो साल में बना लेंगे। दो साल गुजारने लायक क्षमता तो हममें होगी ही। बाद में तो रायल्टी मिलती रहेगी!

अब हमने यह विचार किया कि किताब के लिए क्या तैयारियां करनी होंगी और कैसे अप्रैल 1978 तक हम अपने आपको आवश्यक उपकरणों से लैस कर लेंगे। संदर्भ ग्रंथ खरीदने होंगे। अभी तो बंधी आय है। काम कार्डों पर किया जाएगा। जैसे कार्ड चाहिए, वैसे मैं डिजाइन करके छपवा लूंगा। नौकरी छोड़ने से पहले सुबह-शाम किताब पर काम करके देखेंगे। जब पूरा अनुभव हो जाए, हाथ सध जाए, तभी दिल्ली जाएंगे। निश्चित तारीख तक यह सब हो जाएगा, और सारा काम हमारी योजना के अनुसार होगा। दो साल में किताब तैयार होगी। हमने खुद को आश्वस्त कर लिया।

उगता मायावी चालाक सूरज पेड़ों की फुनगियों और हमारे दृष्टिकोण को सुनहरी किरणों से रंग रहा था। राह के गड्ढों और कांटों को अंधकार से अदृश्य कर रहा था। कभी-कभी आदमी को ऐसे ही छलिया सूरज की जरूरत होती है। ऐसे सूरज न उगें, तो नए प्रयास शायद कभी न हों। खुशी-खुशी हम लोग माउंट प्लेजेंट रोड की ढलान से नेपियन सी रोड पर ‘प्रेम मिलन’ नाम की इमारत में सातवीं मंजिल पर छिहत्तरवें फ्लैट पर लौट आए। मैं दफ्तर जाते ही प्रॉविडेंट फंड की राशि बढ़वाने वाले आवेदन का मजमून बनाने लगा।

 

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