सतीश खनगवाल

शाम का धुंधलका चारों ओर छा चुका था और मीठी-मीठी ठंड अपने पैर फैला रही थी। शाम का टहलना पूरा करके मैं उद्यान के एक बेंच पर बैठा। कुछ बुजुर्ग टोलियों में बैठे थे और बच्चे खेल रहे थे। कहीं-कहीं छितराए रूप से कुछ जोड़े भी बैठे दिखाई दे रहे थे। लोग आ-जा रहे थे। सब कुछ रोज की तरह। फिर दाहिनी ओर के कोने से शोर उभरा। दस-बारह युवा लड़के-लड़कियों का एक झुंड आधुनिक तकनीक से लैस कानफोड़ू संगीत पर नाच-गा रहे थे। वहां मौजूद बाकी लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ा। सब अपने-अपने क्रियाकलाप में लग गए। जिनकी आपसी बातचीत में बाधा खड़ी हुई, उन्होंने अपनी जगह बदल ली। लेकिन कुछ बच्चों को इसमें दिलचस्पी पैदा हो गई। वे गौर से उन्हें देखने लगे। बल्कि कुछ बच्चे उनकी मौज-मस्ती में शामिल होने का प्रयास भी कर रहे थे। कुछ देर बाद तीन लड़के कुछ पैकेट और थैलियों में खाने-पीने का सामान लेकर आए। उसमें से केक भी बाहर आया। यहां तक तो सब ठीक था। लेकिन केक काटने के बाद वहां का वातावरण किसी हुड़दंग की तरह हो गया। जिस लड़के का जन्मदिन था, उसकी कमीज उतार फेंकी गई। सिर और शरीर पर केक की क्रीम लगा दी गई। इसके बाद अन्य लड़के-लड़कियों के चेहरों पर भी वह क्रीम पोत दी गई। उत्साह शोर में बदल गया था।

कुछ देर बाद एक नया और आश्चर्यजनक दृश्य सामने आया। वे लोग एक-दूसरे के शरीर पर लगी क्रीम को खा रहे थे। बाद में खाने-पीने का सामान भी खोला गया। यों मैं करीब सात बजे उद्यान से लौट आता हूं, लेकिन उस दिन वहीं बैठा देश की नई युवा पीढ़ी के जन्मदिन मनाने के इस तरीके को देखता रहा। करीब दो घंटे की मौज-मस्ती के बाद रात नौ बजे युवाओं का वह दल वहां से चला गया और अपने पीछे छोड़ गया स्वच्छता के अभियान के लिए चुनौती। केक और चिप्स के पैकेट, पॉलीथिन की थैलियां और वह खाना, जो खाया कम गया था, बिखेरा ज्यादा गया। यह दल अपने पीछे केवल कूड़ा-करकट ही नहीं, बल्कि कई सवाल भी छोड़ गया था।

देश की राजधानी दिल्ली के एक उद्यान का यह समूचा दृश्य देख कर कुछ महीने पहले की वह खबर ध्यान में आ गई, जब दिल्ली में ही दो बच्चियां भूख से मर गई थीं। वे दृश्य आंखों में घूम गए, जब आधार कार्ड नहीं होने के कारण गरीब परिवारों को राशन नहीं मिला और कोई बच्ची केवल भात के लिए तरसती हुई मर गई। केरल जैसे बाढ़ग्रस्त राज्य मन में खलबली मचाने लगे, जहां जनजीवन आज भी अस्त-व्यस्त है और लोग अपने जीवन का आधार तलाश रहे हैं।

ये आज के भारत की तस्वीरें है। एक ओर हमारा भारत अपनी प्रगति पर इतरा कर अपने धन और संसाधनों की बर्बादी करने में लगा है। दूसरी ओर जो भूख और गरीबी से मर रहा है, वह भी मेरा भारत ही है। इन युवाओं को देख कर मुझे उस युवा पीढ़ी की याद आ गई जो हाथों में लाखों रुपए की डिग्री लेकर रोजगार के लिए भटक रही है और जिसका भविष्य गर्त में जा रहा है। क्या उद्यान में जन्मदिन मना रहे युवा लड़के-लड़कियां देश की उस युवा पीढ़ी से अलग थे? क्या इन्हें देश के हालात और चुनौतियों का ज्ञान नहीं है? क्या ये देश की गरीबी और भुखमरी के हालात से अनभिज्ञ हैं?

मेरी समझ में यह नहीं आया कि जन्मदिन मनाने का यह कौन-सा तरीका विकसित हो गया है? एक हमारा तरीका था, जब सुबह उठते ही माता-पिता के पैर छूकर आशीर्वाद प्राप्त करते थे, मां घर में ही कुछ पकवान बना देती थीं और मित्रों के परिवार के साथ वही खाते और बात करते थे। उपहार के नाम पर एक जोड़ी कपड़े और ज्यादा कुछ तो साइकिल, घड़ी आदि। कोई शोर नहीं। लेकिन आजकल किसी महंगे होटल, रेस्तरां या उद्यानों के कोनों में धन, समय, संसाधन और खाने की बर्बादी के साथ जन्मदिन मनाए जाने लगे हैं। दरअसल, यह उस भारत की तस्वीर है, जहां एंबुलेंस को अस्पताल पहुंचने में घंटों लग जाते हैं, लेकिन पित्जा बीस मिनट में पहुंच जाता है। यह वह आधुनिक पीढ़ी है जो सोशल मीडिया पर तो घंटों गुजार देती है, लेकिन अपने माता-पिता और परिवार के लिए दो क्षण नहीं निकाल पाती। यह दोहन तो अपने देश के संसाधनों का करती है, लेकिन सपने विदेशी सरजमीं के देखती है।

जन्मदिन और अन्य जश्न मनाए जाने चाहिए। ये हमारी प्रसन्नता के साथ-साथ हमारी अस्मिता और संस्कृति से भी जुड़े हुए हैं। लेकिन इन्हें मनाते समय शालीनता को ध्यान में रखा जाना चाहिए। यह भी याद रखना चाहिए कि हमारी खुशी में देश की गरीब जनता के किसी अधिकार का क्षरण नहीं हो। हमारे उत्सव और आयोजनों में देश के धन और संसाधनों की बर्बादी नहीं होनी चाहिए।