पिछले दो-तीन दशकों के दौरान देश में यातायात के साधन बहुत बढ़े हैं। हम अब सड़कों पर सिर्फ महानगरों में ही नहीं, कस्बों, उपनगरों आदि में भी मोटर साइकिलों, आॅटो रिक्शा, टेम्पू, ई-रिक्शा, मिनी बसों आदि को दौड़ता हुआ देख रहे हैं। महानगरों के साथ-साथ देश में राज्यों की राजधानी या मंझोले शहरों में हम मेट्रो लाइन का विस्तार भी देख रहे हैं। हर बजट के साथ नई रेल-पटरियों की घोषणा होती है। सरकारी और प्राइवेट बसों में भी बढ़ोतरी हुई है। निजी कंपनियों की टैक्सियां बड़ी तादाद में चलने लगी हैं। इस सबके बावजूद ट्रेनों-बसों या सभी दूसरे वाहनों में भीड़ पहले के मुकाबले बहुत ज्यादा हो रही है। यह बात अक्सर कही जाती है कि यातायात के साधन चाहे जितने बढ़ा दिए जाएं, पर वे बढ़ती हुई जनसंख्या के कारण हमेशा ‘कम’ मालूम पड़ेंगे! यह भी सच्चाई है कि वाहन हमारे छोटे-मंझोले शहरों की गलियों-सड़कों की इस भीड़ के हिसाब से नहीं बने थे। सो, कई बार ट्रैफिक व्यवस्था चरमराती हुई दिखती है।
हम हर जगह ‘बड़ी भीड़’ वाला देश बनते जा रहे हैं। जिन लोगों ने सोचा था कि बढ़ते हुए यातायात के साधनों के कारण अब हमारे रेलवे प्लेटफॉर्मों, रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर ‘अफरातफरी’ नहीं मचेगी, वहां लोग जमीन पर बैठे, लेटे नहीं दिखाई पड़ेंगे, वे निराश हुए हैं। महानगरों तक के रेलवे स्टेशनों का दृश्य बहुत बार ऐसा होता है, जैसे वह शरणार्थियों का डेरा हो। हालत तो यह है कि हवाई अड्डों पर भी अब भीड़ बढ़ रही है।
वे दिन बहुत पीछे चले गए हैं, जब शहरों कस्बों में इक्के-तांगे दौड़ते थे और साइकिलों पर बड़े-बड़े डॉक्टर इंजीनियर भी शान से बैठे हुए मिल जाते थे। वाहनों की इस भीड़ में साइकिल अभी है, लेकिन अब उसे वह प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं है, जो एक जमाने में प्राप्त थी। इसका एक कारण तो यह है कि तब साइकिल भी ‘दुर्लभ’ हुआ करती थी। उसे एक स्टेटस सहज ही प्राप्त था, जो आज की कई महंगी गाड़ियों की तरह था। लेकिन जो साइकिल आज भी हमारी कई मुसीबतों को कम कर सकती है, उसे हमने प्रतिष्ठा की दुनिया से देश-निकाला दे दिया है। उसे चलाने के लिए गाड़ियों और अन्य वाहनों के बीच जगह भी कहां छोड़ी हैं हमने!
गाड़ियों को लेकर दिनोंदिन स्टेटस की दुनिया में प्रतिस्पर्धा बढ़ती जा रही है। दिल्ली में तो कई घरों में तीन लोगों के बीच चार या पांच गाड़ियां भी मिल सकती हैं। यह हाल तब भी है जब पेट्रोल-डीजल की कीमतों में भारी वृद्धि हो रही है और आम जन को महंगाई की मार झेलनी पड़ रही है।
यह मान लेना गलत नहीं होगा कि जिस तरह का ‘माइंडसेट’ हमारे उच्च वर्गों के बीच कई रूपों में लोगों का बनता गया है, उसके कारण भी कई तरह की नई मुसीबतें खड़ी हो रही हैं! ‘रोड रेज’ यानी सड़क पर मामूली बातों पर पैदा गुस्सा एक नई मुसीबत है। अगर जनसंख्या बढ़ते जाने के कारण यातायात की समस्या बोझिल होती जाती है, तो कई अन्य कारणों से भी वह बढ़ती जाती है। ‘स्टेटस’ की प्रतिस्पर्धा पर कुछ और गौर करें तो कई तरह की विचित्रताएं और चीजों को लेकर हमारे दृष्टिकोण में दिखाई पड़ेंगी। जो उच्च वर्गीय किशोर-किशोरियां छात्र-जीवन तक अपने रिहायशी परिसरों में साइकिल चलाने का भरपूर आनंद उठाते हैं, वे ही तीन-चार बरस बाद, उसे हेय दृष्टि से देखने लगते हैं। सिर्फ साइकिल नहीं, अगर वे कई गाड़ियों वाले घर के हैं तो आॅटो आदि भी उनके लिए निहायत मामूली वाहन बन जाते हैं।
हमारे नगर-निगम और अन्य सरकारी-गैर सरकारी एजेंसियों द्वारा वाहनों से संबंधित कई तरह के अभियान केवल नाम के लिए चलाए जाते हैं! बहरहाल, वाहन किसी भी हाल में हो, उसकी स्वच्छता की स्थिति चाहे जैसी हो, वह चलता रहे, बस यही कामना रहती है। बीच-बीच में ऐसी खबरें आती हैं कि यातायात को नदियों की ओर भी मोड़ा जाएगा। यह एक स्वागत योग्य बात है, पर नदियों की दुर्दशा हमने क्या कम की है! फिर भी, असम का ब्रह्मपुत्र हो, (वह नद है न!) या देश की अन्य बड़ी नदियां, या केरल जैसे प्रदेशों की नदियां, वहां की नई-‘पुरानी’ नावें चलती ही रहनी चाहिए। यातायात की इस समस्या के बीच एक बड़ी समस्या बुजुर्गों और महिलाओं की है, जिनको कई बार सार्वजनिक परिवहनों में उद्दंडता या उच्छृंखलता का सामना करना पड़ता है। उनके लिए आरक्षित सीटें भी जल्दी से खाली नहीं की जातीं। ट्रेन हो बस, उनके लिए पायदान आमतौर पर सुगम नहीं होते। दूसरी ओर, कुछ उद्दंड युवक सार्वजनिक परिवहन नष्ट या खराब करते रहते हैं, उन्हें बुरी तरह नोचते-खसोटते रहते हैं। ट्रेनों में पानी के नलों की टोंटियां तक उखाड़ ली जाती हैं। क्या एक बड़ा शिक्षा अभियान इस पर भी नहीं चलना चाहिए कि हम अपने यातायात साधनों को बरतें तो किस तरह!