दीपक मशाल

बात थी तो पुरानी, लेकिन लौट-लौट कर जेहन में आती और तकलीफ बढ़ा जाती थी। उस समय मैं दिल्ली के एक विज्ञान संस्थान में एक परियोजना से जुड़ा था। एक दिन मेरे परियोजना निरीक्षक ने कहा कि अगले चार दिन तक तुम्हें कोई प्रयोग करने के बजाय अमेरिका से आई एक अतिथि को दिल्ली भ्रमण कराना और खरीदारी में मदद करना है।

मैं खुश था कि इतने दिन नियमित एक जैसे प्रयोगों से कुछ छुटकारा मिलेगा। साथियों की आंखों में अपने प्रति ईर्ष्या देख यह खुशी और बढ़ रही थी। उस उम्र में ‘अमेरिका से आई अतिथि’ वाक्य खासा आकर्षक लगता था। मन में कुछ नक्शे बनाने लगा था। तब मेरी उम्र चौबीस-पच्चीस के बीच थी।

अगले दिन सुबह दस बजे उस अमेरिकी अतिथि को महरौली ले जाने से पहले नाश्ते पर बुलाने लिए गेस्टहाउस पहुंच गया। मगर कमरे का दरवाजा खटखटाया और जब वह युवती बाहर आई तो उसे देख कर मेरा सारा उत्साह जाता रहा। उस समय तक मुझे जरा भी अहसास नहीं था कि मेरे भीतर एक रंगभेदी मानसिकता कूट-कूट कर भरी हुई है। एक अश्वेत छात्रा को सामने खड़ा देख कर मन में जो भाव आया वह अमेरिका के शक्तिशाली राष्ट्र बनने से पहले वहां के किसी श्वेत व्यक्ति के भीतर अश्वेत को देख कर आने वाले भाव से ज्यादा अलग नहीं होगा। चूंकि आदेश था कि साथ रहना है, सो एक पूर्वग्रह के टूटने और दूसरे के बनने के बीच तैयार होता मैं उस युवती को घुमाता, खिलाता-पिलाता रहा। कभी सरोजिनी नगर, कनॉट प्लेस तो कभी कुतुबमीनार, लालकिला या दिल्ली हाट, लेकिन जब कभी ऑटोरिक्शा करना पड़ता तो दिल्ली की गरमी में मुझे उसके पसीने की गंध में कड़वाहट का अहसास होता। आखिरकार तीसरे दिन मैंने बीमारी का बहाना बनाया और उसे ताजमहल दिखाने आगरा ले जाने के लिए किसी दूसरे को नियुक्त करा लिया।

घटना को दस साल हो गए। इस बीच जैसे-जैसे जीवन में सीखने, इंसान बनने की प्रक्रिया आगे बढ़ती, उस घटना को याद कर मेरा अपराधबोध बढ़ता जाता, अपने किए पर शर्मिंदगी तो होती, लेकिन कहता किसी से नहीं कि किस वजह से मैं उस युवती को ताजमहल दिखाने नहीं ले गया था। कुछ दिनों पहले जब अमेरिका में पहला मार्टिन लूथर किंग जूनियर दिवस था, विश्वविद्यालय में किंग पर एक प्रस्तुति के बाद मैंने प्रस्तोता और श्रोताओं के बीच इस घटना का जिक्र कर अपनी भूल मानते हुए माफी मांगी तो लगा कि मैं अचानक काफी हल्का हो गया हूं।

इसी प्रस्तुतीकरण के दौरान दिखाई गई स्लाइडों में से एक में विश्व के अन्य बड़े अहिंसावादियों में टालस्टाय के साथ महात्मा गांधी की तस्वीर सम्मान के साथ लगी देख कर गर्व महसूस करता रहा। पर कितना अंतर है कि जहां एक तरफ भारत में गांधीजी के हत्यारे को मंदिर में स्थापित करने जैसे अभियान चल रहे हैं वहीं यहां आज भी मार्टिन लूथर किंग के हत्यारे के प्रति अधिकतर लोगों के दिलों में नफरत है। किंग एकमात्र ऐसे महापुरुष हैं, जिनके गैर-राजनीतिक और किसी महत्त्वपूर्ण पद पर न रहे होने के बावजूद उनके सम्मान में हर साल जनवरी के तीसरे सोमवार को राष्ट्रीय अवकाश रहता है। उनका जन्म तो पंद्रह जनवरी को हुआ था, लेकिन अमेरिका में एक प्रथा है कि ज्यादातर सरकारी अवकाश सोमवार को रखे जाते हैं। शायद इसका एक कारण लोगों को लंबा सप्ताहांत उपलब्ध कराना है। वाशिंगटन डीसी में, जहां उन्होंने अपना सत्रह मिनट का विश्वप्रसिद्ध भाषण, जो ‘मेरा सपना है’ नाम से विख्यात हुआ, दिया था वहां उनकी विशाल मूर्ति लगाई गई है।

अपने यहां कई लोगों को यह गलतफहमी है कि प्रसिद्ध गीत ‘हम होंगे कामयाब’ जिस ‘वी शैल ओवरकम सम डे’ का हिंदी अनुवाद है वह मार्टिन लूथर किंग ने दिया है, जबकि यह गीत बीसवीं सदी की शुरुआत में चार्ल्स अलबर्ट टिंडले ने लिखा था।

खैर, मेरे लिए यह अब इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि एक अहिंसावादी और रंगभेद को इतने बड़े देश से मिटाने वाले नायक के जन्मदिवस पर मैं अपनी एक गलती को सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर सका। पर कहने की जरूरत अब भी रह जाती है कि परोक्ष रूप से जाति और वर्गभेद के साथ रंगभेद अब भी हमारे जीन्स में पैठ बनाए हुए है, वरना श्यामवर्ण गांधीजी के चित्रों में वे गोरे अपने आप नहीं हो जाते। फिल्मों के नायक-नायिका होने के लिए रंग प्रधान तत्त्वों में एक न होता और न ही गोरा बनाने वाली क्रीम के विज्ञापन हर आधे घंटे पर दिखते। इससे भी चार कदम आगे बढ़ कर है, हाल में प्रचलित यह अश्लील मजाक कि ‘हम हिंदुस्तानी इसीलिए खुश हैं कि इतिहास में पहली बार हमारा प्रधानमंत्री अमेरिकी राष्ट्रपति से गोरा है’। इस तरह की छींटाकशी निश्चित रूप से हमारे रंगभेदी होने की ही पुष्टि करती है।

 

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