श्रीप्रकाश शर्मा

जब भी परीक्षा के तनाव के बारे में चर्चा होती है तो एक साथ कई विचार तेज आंधी की तरह जेहन में गुजरते चले जाते हैं। एक विचित्र-सा डर, भ्रम, परेशानी, अफरातफरी, दुविधा, उदासी, चिड़चिड़ापन और न जाने कितनी मानसिक और भावनात्मक अवस्थाओं को अपने में समेटे हुए परीक्षा का तनाव विद्यार्थियों के जीवन के लिए किसी दुस्वप्न से कम डरावना नहीं होता है। दुनिया भर के मनोविश्लेषक और शिक्षाविद परीक्षा के तनाव के समाधान के लिए कई प्रकार के सुझाव और तौर-तरीकों की अनुशंसा करते आ रहे हैं। कोई अपने अनुभव के आधार पर परीक्षा के तनाव के शमन के उपाय बताता है तो कोई अपने किताबी ज्ञान के आधार पर तरकीब। लेकिन प्रश्न है कि आखिर एक विद्यार्थी परीक्षा के तनाव का शिकार होता ही क्यों है! संजीदगी से विचार के लिए यह विषय भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है कि आखिर वे कौन-सी परिस्थितियां हैं जो किसी विद्यार्थी के मानसिक रूप से उद्वेलन के लिए जिम्मेदार होती हैं?

1990 के आर्थिक सुधारों के बाद संक्रमण काल में जबकि पूरी दुनिया उदारवाद और भूमंडलीकरण के परिवर्तन के दौर से गुजर रही है तो इस सच को झुठलाना आसान नहीं होगा कि इसके कारण मानव जीवन में सोचने के ढंग और जीवन-शैली में भी बेशुमार अप्रत्याशित तब्दीलियां आई हैं। इसके अलावा, जीवन में सूचना तकनीक की क्रांति के दखल ने तो आग में घी सरीखा काम किया है। सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों के विभिन्न उपादानों के रूप में फेसबुक, वाट्सएप, इंस्टाग्राम, ट्विटर और कई अनेक चमत्कारी और मन-लुभावन खोजों से जीवन के संस्कार, मानवीय मूल्य और नैतिक मर्यादाएं भी अछूते नहीं रह पाए हैं। इन चाहे-अनचाहे परिवर्तनों के कारण कुल मिला कर हर व्यक्ति के जीवन में रंगीनियां आई हैं और आखिर हम अपने गंतव्य की राह से भटक गए हैं।
इतना ही नहीं, उत्प्रेरक के रूप में कार्य कर रही सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों की जादुई दुनिया से एक किशोर विद्यार्थी-जीवन भी महफूज नहीं रह पाया है और नतीजतन उसके मन में अजीबोगरीब भटकाव आया है। कुदरती जिस्मानी परिवर्तन के साथ मन की दशा बुरी तरह से प्रदूषित हुई है।

हाल के दशकों में विद्यार्थियों के स्कूल बस्तों का वजन बढ़ा है। कक्षाओं के पाठ्यक्रम जटिल हुए हैं और इसने विद्यार्थियों का मानसिक सुकून छीना है। नतीजतन, बच्चों को इन समस्याओं से मुक्त करने के लिए टेक्स्ट बुक्स की संख्या कम करने और पाठ्यक्रम को घटाने की दलीलों से शिक्षा बाजार गर्म है। यहां आत्म-मीमांसा का एक बड़ा प्रश्न यह है कि क्या महज स्कूल बस्ते का भार कम कर देने या फिर पाठ्यक्रम का स्तर निम्न कर देने से विद्यार्थियों को परीक्षा के तनाव से महफूज रखा जा सकता है?

विद्यार्थी जीवन में स्वाध्याय एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इससे एक विद्यार्थी कठिन मेहनत के बल पर खुद में अंतर्निहित कमियों की भरपाई करता है और एकलव्य की तरह अपनी विधा में महारत हासिल कर लेता है। लेकिन पिछले दो-तीन दशकों में विद्यार्थी के जीवन के स्व-निर्माण के इस तरीके में काफी क्षरण आया है। विद्यार्थियों के द्वारा घंटों वाट्सएप पर अपने दोस्तों के साथ बात करने और यूट्यूब पर वीडियो देखने में जिस बहुमूल्य समय की बर्बादी की जाती है, आज उस पर गहनता से चिंतन की दरकार है।

माना जाता है कि अगर आप किसी कार्य के लिए योजना बनाने में विफल रहते हैं तो आप असफल होने की योजना बना रहे होते हैं। कार्य की विशालता को ध्यान में रखते हुए योजनाबद्ध तरीके से कामयाबी पाने की व्यूहरचना के अभाव में मन में चिंता, फिर निराशा और आखिर तनाव उत्पन्न होता है। परीक्षा के बारे में जब विद्यार्थियों की नींद खुलती है, तब तक पीछे जाकर चीजों को फिर से सहजने के लिए काफी देर हो चुकी होती है। इसके अलावा, अभिभावकों द्वारा अपने बच्चों से जमीनी सच्चाई से परे उम्मीद रखने से भी मन एकाएक व्याकुल हो उठता है जिसकी परिणति हताशा और अवसाद में होती है।

लिहाजा, परीक्षा तनाव को अपने जीवन से दूर रखने के लिए विद्यार्थियों की जीवन शैली में अहम परिवर्तन की दरकार है। जीवन में इसके लिए एक लक्ष्य निर्धारित करके उसका शिद्दत से पीछा करने की जरूरत है। ‘करत-करत अभ्यास ते जड़मति होत सुजान’ के आधार पर निरंतर अध्ययन करने और नया सीखने की आदत का विकास करना होगा। मोबाइल फोन और टेलीविजन के विवेकपूर्ण उपयोग के लिए मन पर कठोर नियंत्रण अति आवश्यक है। तेजी से गुजरते समय और विद्यार्थी-जीवन की अहमियत को पहचानते हुए और मन को वश में करते हुए अगर स्वाध्याय के माध्यम से अपने और अभिभावकों के सपनों को साकार करने की पूरी सच्चाई और लगन से कोशिश की जाए तो परीक्षा एक तनाव नहीं, बल्कि संपूर्ण जीवन यात्रा का एक प्रतीक्षित और सुखद पड़ाव बन जाता है।