मैं उस शिशु को मॉल के चमकते हुए फर्श पर घुटनों के बल चलते थोड़ी देर तक देखता रहा। ‘घुटरुन चलत रेनु तन मंडित…’ जैसी पंक्ति की याद आई। पर यहां तो कहीं रेनु नहीं थी, इसका अहसास फिर हुआ। चारों ओर तरह-तरह की दुकानों और सामानों, कई प्रकार के बल्ब और शो विंडोज की चकाचौंध थी। शिशु के पीछे-पीछे उसके माता-पिता प्रैम लिए हुए चल रहे थे, जिससे उस शिशु को थोड़ी देर पहले उतार दिया गया था। साथ में दो-एक परिजन और थे। मन में यह बात कौंधी कि कहीं यह शिशु को ‘पहली बार घुटनों के बल चलाने का एक आयोजन’ तो नहीं है! मेरे एक परिचित ने अपने एक व्यवसायी परिचित के परिवार का किस्सा सुनाया था कि जब परिवार की एक संतान घुटनों के बल चलने लायक हुई तो उसे मॉल में लाया गया था। मॉल का फर्श चमकता हुआ, चिकना है, उसमें चलने की ‘राह’ है और दर्शक भी इस दृश्य को देख कर सुख उठाएंगे। जब वह बड़ा हो जाएगा तो यह भी कहा जा सकेगा कि ‘इसने तो चलना भी मॉल में सीखा था।’
कोई हर्ज नहीं। सबकी अपनी इच्छाएं, अपने संकल्प हैं। मेट्रो शहरों के भयंकर जाम के बावजूद अगर कई परिवारों में गाड़ियों की संख्या बढ़ती जा रही है, सड़क और पार्किंग की जगह को लगातार कम करती हुई, तो फिर किसी और चीज के लिए कहना क्या है! किस बूते आप अन्य कई इच्छाओं और संकल्पों की आलोचना करेंगे, जिन्हें आज का ‘बाजार’ नित नए रूपों में ढाल रहा है। पर ये जो शीत-ताप नियंत्रित विद्या-संस्थान बन रहे हैं, इसमें बच्चों को चलना सिखाना है, मातृभाषा का कैसा भी उपयोग छोड़ कर सिर्फ अंग्रेजी का उपयोग शिशुओं में भरना है, उन इच्छाओं और संकल्पों के बारे में ठहर कर कुछ सोचने और कुछ कहने का भी मन करता है।
हमारे पड़ोस की एक युवा मां ‘अमिताभ बच्चन की हिंदी’ की मुझसे जब भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगीं तो मैं उनसे यह कहे बिना नहीं रह सका कि यह जो आप और आपके पति अपने बेटे के साथ लगातार अंग्रेजी बोलते हैं, ताकि वह आगे चल कर पक्का अंग्रेजीदां बन सके, उसे ‘अमिताभ-संदर्भ’ में रख कर भी कुछ तो जांच लीजिए! उन्हें मेरी बात से कुछ धक्का लगा। मानो उसे अभी पता चला कि अमिताभ के व्यक्तित्व में जो ‘निखार’ है, उसके पीछे उसकी मातृभाषा भी है। उन्होंने कहा कि ‘आप बात तो सही कह रहे हैं।’ लेकिन मैं जानता था कि मेरे लिए यह ‘सही’ का सर्टिफिकेट बस कुछ देर तक रहने वाला है, फिर उसकी चिंदियां हवा में बिखर जाएंगी और बच्चे के साथ उनकी बातचीत अंग्रेजी में जारी रहेगी। बेटे के लिए सपना उस जगत का है, जहां अंग्रेजी ऊंची नौकरी और ‘ऊंचा लाइफ स्टाइल’ दिला सकती है।
Read Also: ‘दुनिया मेरे आगे’ कॉलम में अंशुमाली रस्तोगी का लेखः वर्चस्व का बाजार
समाज में जो चीजें ‘यथार्थ’ बन कर आ जाती हैं, उसके कई पहलू बन जाते हैं। उस यथार्थ की लाभ-हानि को कई तरह से जांचना पड़ता है। पर भला इसमें क्या शक कि इस समय ‘बाजार’ चौतरफा ‘आक्रमण’ कर रहा है। वह कुछ ऐसा चक्रव्यूह भी बना रहा है कि उसके बीच से बिना कुछ खरीदे या खाए-पिए निकल आना संभव ही नहीं रह गया है। मॉल अब कई तरह से शहरी जीवन में प्रतिबिंबित हो रहे हैं। सो, उस शिशु का घुटनों के बल चलना हो या ‘वील चेयर’ पर और छड़ी के सहारे बुजुर्गों का आना-चलना, हमने सब देखा और समझा। यह भी समझा मॉल हमारे समाज में व्याप्त विभिन्न आय-वर्गों के बीच जो विषमताएं अभी व्याप्त हैं, उनकी भी जाने-अनजाने एक खबर हमें दे देते हैं। देश के कई आय वर्ग तो अपने बच्चों को मॉल में ले जाने की बात सोच भी नहीं सकते हैं। उनके बच्चों को धूल-शूल ही नसीब हैं। पहनने-ओढ़ने के जो वस्त्र मॉल में या ऊंचे बाजारों में बिकते हैं, उनसे वे कोसों दूर हैं।
भारत उन देशों की जलवायु वाले मुल्कों में से है, जिनके यहां खूब गरमी, खूब सर्दी, खूब वर्षा-बाढ़ की व्याप्ति रही है और इन सबको झेलने की एक ‘रेसिस्टेंस पॉवर’ इसीलिए जरूरी मानी जाती रही है। यही कारण है कि बच्चों को धूल में चलाने से लेकर, वर्षा में भीगने तक को किसी न किसी रूप में जरूरी माना जाता रहा है। पर अब दिखाई यह पड़ रहा है कि एक खास आय वर्ग वाले उन्हें इन सभी चीजों से परहेज करना सिखा रहे हैं। भाषा के मामले में कोशिश यह हो रही है कि उनके बच्चे बैंगन को बैंगन नहीं ‘बृंजाल’ बुलाएं, गोभी भी उनके लिए ‘कलीफ्लावर’ बन जाए। ‘एक-दो-तीन’ को कब का विस्थापित कर चुके हैं ‘टू-थ्री-फोर’ ही। ‘उनसठ’ या ‘उनतीस’ आदि उनके लिए अजनबी ध्वनियां हैं। समाज के ‘अगड़े’ वर्ग जिन चीजों को प्रोत्साहित करते हैं, शेष सभी उन्हीं को अपनाने के लिए किसी न किसी रूप में बाध्य कर दिए जाते हैं।
Read Also: ‘दुनिया मेरे आगे’ कॉलम में जाबिर हुसेन का लेखः मशीनों की गिरफ्त