विष्णु नागर
हमारा बेटा केरल में जिस फ्लैट में रहता है, उसके मालिक उसे अब बेचना चाहते हैं। मगर अभी तक इस कोशिश में वे कामयाब नहीं हुए हैं। करीब एक माह पूर्व एक मलयाली परिवार उस फ्लैट को देखने आया। उसने सारे फ्लैट को अच्छी तरह देखा। वह परिवार चूंकि दिल्ली में रह चुका था, इसलिए उसकी एक सदस्य ने हिंदी में ही पूछा कि क्या इस फ्लैट में नौकर के लिए अलग बाथरूम नहीं है? पत्नी ने इस अप्रत्याशित सवाल को सुन कर जवाब दिया कि जो भी है, आपके सामने है। इससे ज्यादा वह बता भी नहीं सकती थी। उसे यह सवाल बहुत विचित्र लगा था, मगर लड़ने-क्रुद्ध होने का अवसर नहीं था। खैर, उस परिवार को यह फ्लैट पसंद नहीं आया, जिसके तीनों कमरे के साथ एक-एक बाथरूम है।
नौकर के लिए अलग बाथरूम की बात जब से मैंने सुनी है, तब से बेचैन हूं। पता चला कि उस परिवार के लोग कोई अप्रत्याशित सवाल नहीं पूछ रहे थे। केरल में आमतौर पर सोने के कमरों से बाहर, ड्राइंग रूम के पास कहीं एक अलग बाथरूम होता है जो घर के नौकरों के लिए होता है। इस फ्लैट में भी इसके लिए जगह छोड़ी गई थी, मगर किन्हीं कारणों से मकान मालिक ने ऐसा बाथरूम बनवाना पसंद नहीं किया। एक स्तर पर कह सकते हैं कि मध्यवर्गीय मलयाली परिवार इतने अधिक संवेदनशील होते हैं कि घर में काम करने के लिए आने वाले नौकरों का भी बहुत खयाल रखते हैं। लेकिन थोड़ा सोचने पर संवेदनशीलता का यह तर्क बेमानी लगने लगता है।
जाहिर है, उत्तर भारत की तरह केरल के मध्यवर्ग को भी यह स्वीकार्य नहीं है कि जिस बाथरूम का इस्तेमाल घर के सदस्य करें, उसी का प्रयोग नौकर भी करें। वरना इस वर्ग के हाथ से जबर्दस्ती अपनी श्रेष्ठता साबित करने का एक मौका चूक जाएगा। नौकर के लिए अलग बाथरूम की यह मानसिकता ठेठ सामंती, जातिवादी और वर्गवादी है। आखिर तीन-तीन बाथरूम के होते हुए क्यों चाहिए नौकर के लिए एक अलग बाथरूम? यों दिल्ली में रह कर यह समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है, जहां बहुत से फ्लैटों या ‘कोठी’ में नौकर या नौकरानी को बाथरूम का इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं होती। उन्हें बाहर ही निबट कर आना होता है। यह जातीय और वर्गीय दंभ इस वर्ग के ऐसे तमाम लोगों के मनुष्य न होने का ही पुख्ता प्रमाण है। किसी भी तरह उनकी श्रेष्ठता का नहीं, बल्कि उनकी निम्नता का ही सबूत है! यह बीमारी दफ्तरों तक में फैली हुई है।
ऐसे फ्लैट के मालिक क्या यह सोचते हैं कि शौच जाते समय जिस पदार्थ का वे उस जगह ‘सृजन’ किया करते हैं, वह ‘उच्च कोटि’ का होता है और जिस पदार्थ का उत्सर्जन नौकर-नौकरानी करते हैं, वह ‘निम्न कोटि’ का होता है? क्या इसीलिए दो कोटि के तरल-ठोस पदार्थ एक ही जगह बहाने की इजाजत नहीं है? क्या इससे उनके बाथरूम की ‘पवित्रता’ नष्ट हो जाती है? या शायद उनके मल-मूत्र से खुशबू निकलती होगी और नौकर वाले से बदबू! सुगंधित बाथरूम को बदबू से कैसे वे दूषित होने दे सकते हैं? तर माल खाने से और रूखी-सूखी रोटी खाने से मल-मूत्र में ऐसा गुणात्मक परिवर्तन आ जाता है, ऐसे ‘वैज्ञानिक शोध’ के बारे में मैंने अभी तक तो नहीं पढ़ा है। हालांकि मैं बहुत ज्ञानी हूं और मुझे वह सब मालूम है जो दूसरों को मालूम है, ऐसा कोई मेरा दावा भी नहीं है। फिर भी शायद मैं गलत नहीं हूं। हिंदुत्ववादी चाहें तो इस बारे में ‘वैज्ञानिक शोध’ से हमें लाभान्वित कर सकते हैं, क्योंकि उनका इतिहास-विज्ञान सब अलग है!
एक और बात हो सकती है कि मध्यवर्गीय-उच्चवर्णीय समझ के अनुसार नौकर प्रजाति उनके अनुसार ‘गंदी’ और ‘निम्न’ हो, क्योंकि इसके अधिकतर सदस्य नीची कही जाने वाली जातियों से आते हैं तो उनके और हमारे शौच जाने की जगह तक एक कैसे हो सकती है! जब मंदिर एक नहीं हो सकते, खाने की प्लेट एक नहीं हो सकती तो शौच जाने की जगह भी एक कैसे हो सकती है? मगर भाइयो-बहनो, अगर नौकर नाम की चीज अपने साथ गंदगी साथ लेकर आती है तो फिर आप अपने सारे काम खुद क्यों नहीं कर लेते, ताकि आपकी ‘शुद्धता’ और ‘पवित्रता’ अकलंकित रहे, आप गंदगी के स्पर्श से बचे रहें। अगर आपके-हमारे ब्राह्मण पूर्वज दलितों की छाया तक से अपवित्र हो जाते थे तो आप-हम उनकी स्मृति को बनाए रखने के लिए अपने आराम को तरजीह न देते हुए इन्हें घर के अंदर आने से रोक कर खुद को ‘अपवित्र’ होने से बचा तो सकते ही हैं? क्यों हम-आप इस तरह अपने पूर्वजों की दाय को सुरक्षित नहीं रखते? फिर क्यों हम-आप इन्हें सारे घर में झाड़ू-पोंछा लगाने देते हैं, क्यों उनसे बरतन साफ करवाते हैं, उनके हाथ का बना खाना तक खा लेते हैं और अपने बच्चों को उनके पास पालने-पोसने, खिलाने-पिलाने छोड़ जाते हैं?
हे प्रभो आनंददाता ज्ञान हमको कब दोगे? बाईसवीं सदी में या तब भी नहीं!
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