दीपक मशाल
कुछ समय पहले पेरिस से भारत आया तो मोबाइल में वाट्स-ऐप को बंद करना भूल गया। इसका खमियाजा इस तरह भुगतना पड़ा कि ज्यों ही अपने यहां की सिम कार्ड मोबाइल में डाली, उसे रिचार्ज कराया और उसमें बाकी बचे पैसे की जांच की तो बासठ रुपए और कुछ पैसे कम मिले। मैंने दुकानदार से पूछा कि ‘ये तो जितना बचा हुआ पैसा इसके संदेश में बताया गया, उससे भी कम हो गया है। जबकि मैंने न तो कोई फोन किया और न किसी को संदेश भेजा!’ दुकानदार ने मोबाइल देख कर बताया कि ‘वाट्स-ऐप चालू था और उस पर कुछ संदेश आए हैं, सो उसी का पैसा काटा गया है’। मैं हैरत में था कि मैंने कोई संदेश देखा तक नहीं, फिर भी जबरन भुगतान कैसे करा लिया गया! इस बीच दुकानदार ने चेताते हुए कहा कि ‘भाई साब, यह इंटरनेट सर्विस बंद कर लीजिए, वरना कल सुबह तक सारा बचा हुआ पैसा खत्म हो जाएगा।’
पिछली बार के बुरे अनुभव से इंटरनेट मॉडम वगैरह की लूट-खसोट से वाकिफ था, लेकिन इस तरह लुटने का यह अनुभव नया था। बाद में पता चला कि मैं कोई अकेला नहीं, जिसके साथ इस तरह ‘सद्भाव’ दिखाया गया था। पूरा कारवां ही लूटा गया था। कई और भी जाने और अनजाने लोगों ने बताया कि ‘इसमें कोई नई बात नहीं। गनीमत है कि आपका तो फलाने का नेटवर्क है, ढिमाके का होता तो उतना कटता कि आप सोच भी नहीं सकते’। किसी ने बताया कि उसके तो रातों-रात चार सौ बयासी रुपए कट गए थे।
मुसीबत यह भी है कि आप चाह कर भी संवैधानिक रूप से इसे धोखाधड़ी नहीं कह सकते। वजह वही है जो प्रेमचंद की कहानियों में शोषित वर्ग के साथ थी। फर्क महज इतना है कि उस समय में कोई गरीब-गुरबा आदमी जमींदार के पास अपनी जमीन गिरवी रखता था तो कागज पर लिखी हुई शर्तों को वह अपनी निरक्षरता के चलते पढ़ नहीं पाता था और जहां कहो, वहां अंगूठा लगा देता था या फिर अगर थोड़ा पढ़ा-लिखा किसान या मजदूर हुआ तो उससे जबरन कोरे कागज पर ही दस्तखत करा लिए जाते थे। मगर अब साक्षरता और जागरूकता बढ़ने पर भी अक्सर शर्तें और नियम की उलझी हुई भाषा के चलते या फिर ‘कौन अपना सिर खपाए’ सोच कर, जहां पहले से ‘सही’ का निशान लगा होता है, सीधे वहीं पहुंच कर दस्तखत कर देते हैं।
माना कि नेटवर्क उपलब्ध कराने वाली कंपनियों की यह लूट सिर्फ भारत में नहीं, बल्कि लगभग सारी दुनिया में जारी है। मगर जैसी लूट अपने यहां मची हुई है, उसका कहीं जोड़ नहीं मिलता। माहौल यह है कि लोग इतने ‘आतंकित’ तो चोर-लुटेरों या जेबकतरों से भी नहीं हैं! कोई गरीब आदमी बेचारा किसी तरह पैसे बचा कर तीस-चालीस रुपए की राशि मोबाइल में डलवाता है और कुछ ही घंटों के भीतर ‘कॉलर्स टोन’ को अपनी ओर से चालू करके, इंटरनेट भुगतान बता कर या कोई दूसरा विचित्र बहाना बना कर उसका वह छोटा-सा रिचार्ज भी छीन लिया जाता है, जो उसकी न जाने कब बड़ी जरूरत पड़ने वाली हो।
दूसरी तरफ, सालों से सुनते आ रहे हैं कि रोमिंग शुल्क बंद होने जा रहा है। लेकिन लगता है जैसे इस समस्या ने भी ढाक के तीन पत्तों से दोस्ती कर रखी है। मुझे अब तक यूरोपीय देशों या ब्रिटेन में रोमिंग की समस्या नहीं दिखी। जबकि देखा जाए तो फ्रांस भी कम बड़ा देश नहीं। लेकिन वहां एक प्रदेश से दूसरे में जाने पर रोमिंग की कीमत नहीं वसूली जाती। यह बड़ा हास्यास्पद लगता है कि अपने ही देश में एक कोने से दूसरे में जाने पर अतिरिक्त भुगतान करना होता है और इस बार तो आलम यह रहा कि अधिकांश समय दिल्ली में अपने फोन से कहीं कॉल ही नहीं कर पा रहा था। जिसने खुद मुझे कर लिया उसी से बात हो सकी।
इस सबसे स्पष्ट होता है कि कोई भी सरकार नहीं चाहती कि रोमिंग बंद हो और इस तरह के ऊल-जलूल नियम भी जिसके जरिए आमजन का शोषण किया जा रहा है। जाहिर है कि बड़े उद्योगपति घरानों को मोटा फायदा पहुंचाने वाली उनकी ये व्यावसायिक इकाइयां यहां भी नीचे से ऊपर तक बैंक के खातों को गर्म करती रहती हैं। वे भी जानती हैं कि जिस दिन जनता ‘पागल’ हो गई, उस दिन यह चोरी-डकैती बंद हो जाएगी। इसलिए एक-एक दो-दो साल आगे करके ही सही, जितना लूट सकें, उतना लूट लिया जाए।
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