सुमेरचंद
जितनी देर में पृथ्वी अपनी धुरी पर एक चक्कर पूरा करती है, उतने समय को एक दिन कहा जाता है। इसी प्रकार, जितने समय में पृथ्वी सूर्य के गिर्द एक चक्कर पूरा करती है, उसे एक वर्ष कहा जाता है। अब सवाल है कि वर्ष की गणना किस दिन से शुरू की जाए। यह काम दुनिया के कई देशों में अलग-अलग दिन से किया जाता है। हमारे यहां अंगरेज आए और अपने देश पर करीब दो सौ वर्षों तक राज किया। उस दौरान यहां भी इकतीस दिसंबर वाली आधी रात से नववर्ष का उत्सव मनाना शुरू होता था। आधी रात को बारह बजते ही लोग जोर-जोर से ‘नया-नया’ चिल्लाते थे और दूसरे लोगों को ‘हैप्पी न्यू इयर’ बोलना शुरू करते थे। देखादेखी देश के लोग वैसा ही करने लगे, जो आज भी जारी है।
मगर एक बात ध्यान रखने की है कि अंगरेजों के यहां रहते हुए भी यह ‘नया दिन’ केवल सरकारी अधिकारियों और उनके यार-दोस्तों के लिए ही था। आम आदमी का इससे कोई लेना-देना नहीं था। हां, पहली जनवरी की सरकारी छुट्टी होती थी। मगर अब यह दिन हमारे लिए पूरी तरह से नया साल हो चुका है। अखबार और टीवी चैनल कई दिन पहले से ही लोगों को गुदगुदी करने लग जाते हैं कि ‘नव वर्ष आ रहा है’! व्यापारी लोग नए साल के लिए कैलेंडर और डायरियां बनवाते हैं। लोग अपने घर और दफ्तर के दरवाजे पर शानदार ढंग से लिखवाते हैं- ‘हैप्पी न्यू ईयर’। नए साल के ग्रीटिंग कार्ड बेचने वाले जगह-जगह अपनी दुकानें सजा लेते हैं। ये कार्ड यार-दोस्तों और सगे-संबंधियों को भेजे जाते हैं। इकतीस दिसंबर की रात घड़ी की सूई ज्यों ही बारह बजाती हैं तो सारे लोग ऊंची आवाज में चिल्लाते हैं- ‘नया-नया, नया-नया।’ जो सबसे ऊंची आवाज में और ज्यादा देर तक चिल्लाता है, वह सबसे आधुनिक समझा जाता है। फिर पूरा महीना ‘हैप्पी ईयर’ बोलने का दौर चलता रहता है। रास्ता चलते अनजान को भी ऐसा बोल कर थोड़ा सभ्य बन जाने का चलन-सा बन गया है। नए साल के शुभकामना पत्र हमारे बड़े से बड़े राष्ट्रीय स्तर के नेता भी भेजते हैं और उन्हें भी ढेर सारे कार्ड पंद्रह-बीस दिनों तक मिलते रहते हैं।
इस संबंध में अपने देश में दो बातें विचार करने की हैं। पहली तो यह कि साल या दिन का संबंध प्रकृति से जुड़ा होता है। दूसरी यह कि कोई भी नई चीज खुद ही नई दिखाई देती है। इस लिहाज से हम जरा प्रकृति पर नजर डालते हैं। पंद्रह दिसंबर से पंद्रह जनवरी के बीच कड़ाके की ठंड पड़ती है। पेड़-पौधे ठंड के कारण सिमटे-सिकुड़े खड़े रहते हैं। जो पंछी आम दिनों में सुबह पेड़ों पर बैठ कर इकट्ठा गाते हैं, वे ठंड के कारण दुबके रहते हैं। क्या आप इन दिनों कोयल का राग सुन पाते हैं या मोर को नाचते देखते हैं? सूर्य भी धुंध के कारण दिखाई नहीं देता। तो फिर उस दिन हमारी प्रकृति में नया क्या घटता है और हमारी आंखों को नया क्या दिखाई देता है, जिससे प्रभावित होकर हम ‘पढ़े-लिखे’ नया-नया चिल्लाते हैं?
सच यह है कि हमारा नववर्ष आता है संवत्सर से। यह चैत्रमास की शुक्लपक्ष की पहली तिथि को होता है, जब सब कुछ नया लगता रहता है। पेड़ों पर नए कोमल पत्ते आ जाते हैं, कोयल का मीठा राग सुनाई देता है, मोर ठुमके मार कर जी भर कर नाचता है। व्यापारी नए बही-खाते लगाते हैं। विद्यार्थी नई कक्षाओं में जाते हैं, नई पुस्तकें आती हैं, सरकार नया बजट लाती है। जाहिर है, चारों तरफ नया ही नया होता है जो न केवल आंखों को, बल्कि रूह को भी नया लगता है। मगर हम हीन भावना और झूठी आधुनिकता का शिकार होकर उस ठोस सच्चाई से आंखें मूदे न उसे देखते हैं और मनाने की तो बात ही नहीं! एक बड़ा अजूबा यह भी है कि है हमारे दूर-देहात में रहने वाले ठेठ ग्रामीण लोग अब भी संवत्सर को नए साल के तौर पर देखते हैं। लेकिन शहरों-महानगरों में लोग अपनी ही संस्कृति को भूलने में लगे पहली जनवरी को ‘नया वर्ष’ मनाते हैं! इन सबके साथ एक सवाल यह भी है कि जो लोग ‘संस्कृति बचाओ’ का नारा लगाते फिरते हैं, क्या उन्हें सचमुच अपनी संस्कृति को बचाने की फिक्र है? उनके आचार-व्यवहार और उनकी राजनीति को देख कर तो ऐसा नहीं लगता!
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