संदीप जोशी

आज दलीय राजनीति अपनी विचारधारा यानी ‘बेस’ को संवारने में लगी है और अपने चेहरे बदलने के लिए मजबूर हुई है। मूंगफली होते राजनीतिक व्यवहार में गिरती कीमत के सहारे लोकतंत्र के मूल्य निर्धारित किए जा रहे हैं। दिल्ली में विधानसभा फिर से चुनी जाएगी। पिछले तीन-चार साल में देश की राजनीति भी करवट ले चुकी है। दिल्ली में 2011 में अण्णा के अनशन और केजरीवाल के आंदोलन से देश की जनता ने राजनीतिक बदलाव की नींव रखी थी। हो सकता है कि यह उदाहरण कमजोर है, लेकिन मौजूदा राजनीति को समझने के लिए उपयोगी है। हम जानते हैं कि पित्जा का आधार, या कहें कि नींव एक जैसी रहती है। लेकिन ऊपर का ‘टॉपिंग’ स्वाद और स्थिति के हिसाब से बदलता है। अण्णा के अनशन के दौरान जिस राजनीतिक बदलाव की आशा दिल्ली से देशभर में जगी थी, उसे जनता ने ही सकारात्मक उत्साह में परिवर्तित किया। पहले लोकसभा चुनाव और फिर विधानसभा चुनावों में। दलीय दलदल को जनता ने नकारा और राजनीति को नए मुद्दे खोजने पर मजबूर किया।
सही है कि पिछले बीस-पच्चीस सालों के बाजारवादी उदारवाद में अब प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी ने नया उदारवादी बाजारवाद चलाया है। मगर यह भी सच है कि 2011 में जनता की राजनीति ने जो करवट ली, उसे शायद नरेंद्र मोदी ने ही समझा और आत्मसात किया। कांगे्रस और मोदी से पहले की भाजपा से जनता त्रस्त हो गई थी। बदलती राजनीति ने नए विचार की जरूरत जताई और खाली जगह में नया नेतृत्व तलाशा गया। अण्णा अनशन में उभरे बुनियादी मुद्दों पर नरेंद्र मोदी ने गौर किया और भाजपा का नेतृत्व ही बदल दिया। लेकिन भाजपा का राजनीतिक आधार या आदर्श उसके लिए सामाजिक सवाल खड़े कर रहा है।

दिल्ली चुनाव में भी भाजपा ने अपनी ‘टॉपिंग’ बदली है। कभी अण्णा हजारे और अरविंद केजरीवाल के साथ कांग्रेस के खिलाफ खड़ी हुर्इं किरण बेदी आज भाजपा में शामिल हो चुकी हैं। राजनीति में आने और सदस्य बनते ही उन्हें दिल्ली में मुख्यमंत्री पद के लिए उम्मीदवार बनाया गया। हालांकि भाजपा के प्रति उनका झुकाव नया नहीं है। लेकिन क्या दिल्ली में दोबारा चुनावों की घोषणा ही उनके लिए भाजपा में शामिल होने की सही घड़ी थी? हिसाब लगाना मुश्किल नहीं है कि भाजपा की सदस्यता के लिए किरण बेदी ने साल भर इंतजार क्यों किया! मुख्यमंत्री पद की उम्मीद उनके आंदोलन और सेवा भाव के आड़े आई है। आंदोलन के संघर्ष से सेवा-सत्ता की राजनीति में आना गलत नहीं है। लेकिन सत्ता पद की शर्त कैसे लोकनीति या लोकसेवा हो सकती है?

यह भी तय करना मुश्किल है कि किरण बेदी को भाजपा की जरूरत थी या भाजपा को किरण बेदी की! चुनाव इसका परिणाम देंगे। मगर यह अब सामने है कि अरविंद केजरीवाल के खिलाफ किसी को खड़ा करने में भाजपा को साल भर लग गया। देश में जीतने के बाद भाजपा को दिल्ली में जीतने पर संदेह है। गिरावट की राजनीति में उसे दिल्ली में एक भी ईमानदार नेता नहीं मिला। आंदोलन में केजरीवाल की साथी रहीं किरण बेदी ही भाजपा को उनके मुकाबले रास आर्इं और वह बेदी को आगे करने को अपनी सियासी चाल और तुरुप का इक्का मान रही है। उसने अपने स्थानीय नेता और कार्यकर्ताओं की अनदेखी करके ‘आप’ और कांगे्रस से सत्ता की लालसा में आए नेताओं पर भरोसा दिखाया है। ‘आप’ से बिछड़े और कांग्रेस से टूटे कुछ नेताओं की मौकापरस्ती को जगह दी गई। यह भाजपा की सेवानीति के बजाय सत्तानीति को दर्शाता है। ऐसा लगता है कि दिल्ली की राजनीति को गुजरात की तरह चलाने पर भाजपा मजबूर हुई है।

अरविंद केजरीवाल अभी भी दिल्ली की राजनीति में पांव जमाए हुए हैं। जनता मुख्यमंत्री पद को छोड़ने या पकड़ने की राजनीति के अंतर को समझती है। वह सत्ता खोने से डर और सत्ता पाने की लालसा में दल बदलने वाले नेताओं की राजनीति भी जानती है। चुनाव में असली फैसला जनता ही सुनाएगी। झाड़ू बुहारना भी एक कला है। दबा कर झाड़ू बुहारना साफ-सफाई के लिए जरूरी होता है। उसमें धूल कतई नहीं उड़नी चाहिए, क्योंकि धूल से भरे आकाश में आंख उठा कर नहीं देखा जा सकता। राजनीति में धूल उड़ाने के खेल को जनता समझती है। इस क्षेत्र में सेवाभाव किसी के गले का फंदा नहीं हो सकता है। मगर सवाल है कि भाजपा दिल्ली में क्यों डरी-सहमी हुई है? चौराहे की चाय-चर्चा में सुनने को मिला कि मदारी तो बहुचर्चित और लोकप्रिय है और डमरू भी लुभावना बजाता है! लेकिन खेल-तमाशा अभी देखना बाकी है। जनता अपना मन बना चुकी है। दिल्ली के चुनाव ही देश में राजनीति की बुनियाद रखेंगे। यहां के कठिन संघर्ष में ‘आप’ यानी जनता का ही पलड़ा भारी दिखता है। जो हो, अबकी बार भी देश की राजधानी में दिल्ली की जनता की सरकार बनेगी!

 

फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta

ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta