दरवाजे की घंटी बजी और भूमि ने अंदर प्रवेश किया। रोज चहकते हुए नमस्ते कर झाड़ू उठा कर अपना काम करने वाली भूमि की आंखें नम थीं। आंखों का भारीपन जाहिर कर रहा था कि निश्चित ही वह सारी रात ठीक से सोई नहीं। पति के दफ्तर के लिए घर से निकलते ही मैंने भूमि को पास बिठाते हुए कारण पूछा, तो मेरी आशंका ठीक साबित हुई। उसने बताया कि मां अभी उसकी शादी तीन साल आगे टालना चाहती है, जबकि मुझे ज्ञात था कि उसकी दो महीने पहले सगाई हुई थी और तय था कि सात-आठ महीने बाद शादी कर दी जाएगी।

उसके ससुराल वाले भी जल्दी शादी करने के पक्ष में थे। कारण पूछने पर उसने रोते-रोते बताया कि घर में कमाऊ होने के कारण मां को डर है कि उसकी शादी के बाद घर कैसे चलेगा। दसवीं में दो बार फेल हो चुका भाई सारा दिन मटरगश्ती करता है, पिता तीन साल पहले ही इस दुनिया को छोड़ चुके थे। मकान का किराया देने के साथ-साथ वह वाशिंग मशीन और टीवी की मासिक किस्त भी भर रही थी। उसकी मां भी तीन-चार घरों में बर्तन मांज कर, औरतों की मालिश कर कुछ कमा लेती थी, बस यही सहारा था।

मुझे पता था कि एक वर्ष पूर्व भूमि का किसी लड़के से प्रेम प्रसंग चल रहा था, वह घर वालों से बगावत कर उसके साथ भागने को तत्पर थी। वह बेरोजगार लड़का भी भूमि के सहारे ही अपनी नई जिंदगी जीने की जुगाड़ में था। पर घर वालों के पता लगने पर भूमि को मार-पीट, समझा-बुझा कर अच्छे घर-वर का सपना दिखा उसके सपनों में जल्दी ही रंग भर देने का वादा कर उसकी कहीं और सगाई कर दी गई। अब युवा उमंगें और सपने आंखों में तैरने लगे, तो मां को चिंता अपने भविष्य की सताने लगी। भूमि ने हिचकियां लेते हुए बताया कि उसने मां से वादा किया है कि वह तीन नए घर और पकड़ लेगी, और सारा कर्ज उतार कर ही शादी का जोड़ा पहनेगी। ससुराल वालों ने भी दहेज की कोई इच्छा नहीं जताई, बस वे भूमि के रूप में एक सुशील बहू चाहते थे।

मेरा मन-मस्तिष्क किसी चकरघिन्नी की तरह घूमने और सोचने लगा कि हमारे समाज में जहां उच्च और मध्यवर्गीय घरों की लड़कियां शादी के नाम पर भव्य पंडाल या बैंक्वेट हॉल, प्री वेडिंग वीडियो शूट, पालकी, ब्यूटी पार्लर के महंगे पैकेज, लकदक कपड़े और गहने आदि के नाम पर लाखों खर्च करके अपने सपने सजाती हैं, तो दूसरी ओर भूमि जैसी लड़कियां अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ कर किशोर होते ही मां के साथ बर्तन-भांडा, सफाई का काम थाम लेती हैं। क्या उनमें और भूमि के सपनों में वर्ग का अंतर है, परिस्थितियों का, या नियति का? भूमि की मां और उस जैसे परिवारों के लिए लड़कियां एटीएम मशीन हैं, जिनसे जब चाहो पैसा निकाल लो और बड़ी बेटियों, नाकारा दामादों की जरूरतों, नाती-पोतों के उत्सवों, त्योहारों में खर्चा कर समाज में अपनी नाक बचाए रखो।

भूमि ने यह भी बताया कि उसके दो बड़े विवाहित भाइयों ने अपनी-अपनी गृहस्थी और कमाई का रोना रोकर पहले ही शादी में उनसे कुछ भी उम्मीद न रखने की बात कह ठेंगा दिखा दिया है। हां, उस पर तुर्रा यह कि हम शादी धूमधाम से करेंगे। सबसे छोटी बहन होने के कारण घर की आखिरी शादी है- यानी तीन साल भूमि पैसा जोड़ ले और उस पैसे से हम अकड़ कर समाज के सामने खड़े हो जाएं कि देखो पिता के बाद भाइयों ने अपना दायित्व पूरी जिम्मेदारी से निभाया है। उफ्फ! भूमि ने रोते-रोते कहा: ‘भाभी! किसी को क्या पता, मैं सुबह सात से शाम पांच तक खटती हूं फिर घर की सफाई, कपड़ा, बर्तन और खाना… मैं इन सबके लिए क्यों खटती रहूं? क्यों! भाभी! क्यों?’

भूमि प्रश्न तो मुझसे कर रही थी, पर यह प्रश्न उस समाज और मानसिकता से था, जो कमाऊ बेटी को ढाल बना कर अपने पास रखना चाहते हैं। तभी तो समाज में आज बड़ी उम्र की अनब्याही लड़कियों की संख्या बढ़ रही है। हां, कुछ विशेष परिस्थितियों में अपवाद अवश्य मिलते हैं। अगर कभी भूमि जैसी लड़कियां अपने संस्कारों की गर्दन मरोड़ कर अपने सुख के लिए जीना चाहें तो वे आवारा, बदचलन और चरित्रहीन घोषित कर दी जाएंगी। कभी-कभी ऐसी लड़कियां जिंदगी की जद्दोजहद से तंग आकर अपने प्राणों को होम कर देती हैं। भूमि तो अपने आंसू पोंछ कर जूठे बर्तनों को चमकाने में लग गई, पर मैं सोचने लगी- क्या भूमि अपने कमाऊ होने का दंड भुगत रही है? क्या उसके सपने बेरंग ही रह जाएंगे? उस जैसी बच्चियों का भविष्य कब चमकेगा?