विष्णु नागर
ऐसी खबरें पहले भी छपती रही हैं, आगे भी छपेंगी। खबर यह है कि भिवंडी (महाराष्ट्र) के झोपड़पट्टी इलाके अंबिकानगर के दो बच्चों ने सड़क पर पड़ा एक बैग मिलने पर उसके मालिक को लौटा दिया, जिसमें अस्सी हजार रुपए थे। इसमें से अनिकेत भोहर बारह साल का है और मोनाली अडारी ग्यारह साल की। दोनों साथ-साथ स्कूल से आ रहे थे, तभी सड़क पर पड़ा यह बैग उन्हें दिखा, जिसे वे घर ले आए। उन्होंने अपने मां-बाप को बताया कि जरूर यह किसी जरूरतमंद का है, उसे लौटा देना चाहिए। संयोग से उस बैग में अफजल खान की बैंक पासबुक थी, जिसमें उनका मोबाइल फोन नंबर था। उस पर फोन करने के लिए मोनाली के पिता को किसी मोबाइल फोन रखने वाले के पास जाना पड़ा और ‘मिस्ड कॉल’ दी गई। अफजल खान ने फोन किया तो उन्हें बताया गया कि आपका बैग हमारे पास है और वे ले गए।
खैर, इन दो बच्चों की ईमानदारी की खबर से न केवल गली-मोहल्ले वाले प्रसन्न हुए, खबर फैली तो उन बच्चों के अध्यापकों ने भी आकर बधाई दी और कुछ नेताओं को भी उन्हें मुबारकबाद देने की फुर्सत मिल गई। इससे हो सकता है कि ऐसा कुछ करने की प्रेरणा और भी लोगों को मिली होगी, जो ऐसा मौका मिलने पर शायद यही करते। मुझे उस तरह बैग मिलता तो मैं भी इसी जिंदगी में साबित करके बता चुका होता कि मैं भी ईमानदार हूं! लेकिन जो मौका आज तक नहीं मिला, वह अब क्या मिलेगा!
सचमुच दोनों बच्चे बधाई के पात्र हैं और उनके छोटा-मोटा काम करके किसी तरह गुजारा करने वाले मां-बाप भी। ऐसी खबरें पहले भी आ चुकी हैं और आगे भी आएंगी। किसी का पर्स, बैग या और कोई कीमती सामान किसी रिक्शा, आॅटोरिक्शा, बस, टैक्सी, रेलवे स्टेशन या कहीं और छूट जाता है और कोई गरीब-मजदूर आदमी उसे लौटा देता है। पता नहीं क्यों, याद नहीं आ रहा कि ऐसी कोई खबर कभी किसी समृद्ध के बारे में पढ़ी हो कि उसने भी इस तरह रुपयों का बैग लौटा दिया।
सवाल यह है कि गरीबों की ईमानदारी की इस तरह की खबरें अक्सर खुद गरीब तो अखबार के दफ्तर में जाकर नहीं छपवाते होंगे! हम-आप में से ही कोई नेकनीयत आदमी छपवाता होगा। मगर जरा गौर से देखें तो इस तरह की खबरें लगातार छपने-छपवाने के पीछे आखिर मानसिकता क्या है। इसके पीछे छिपा हुआ संदेश यह लगता है कि वैसे तो घोर गरीबी या अभावों में जीने वाले लोग ईमानदार नहीं हो सकते हैं, मगर फिर भी होते हैं कोई-कोई, जिससे जाहिर होता है कि गरीब वर्ग में भी अभी तक ईमानदारी मरी नहीं है। इसका एक उद्देश्य गरीबों तक यह संदेश पहुंचाना भी है कि बाकी गरीब भी इसी तरह ईमानदार बने रहें, सुखी रहें और इसका इनाम पाते रहें, प्रसिद्धि हासिल करें, सबकी प्रशंसा पाएं और इस तरह लगातार यह सिद्ध करके दिखाते रहें कि उनमें से सब बेईमान नहीं होते।
गरीबी ही बेईमानी सिखाती है (यानी अमीरी ईमानदारी की गारंटी होती है!), यह जो हमारे समृद्धतर वर्गों की समझ बन चुकी है, इसका कठोर-अमानवीय दंड हर दिन हर शहर, हर कस्बे में न जाने कितने गरीब, कितने अकल्पनीय रूपों में भुगतते रहते हैं। किसी समृद्ध व्यक्ति के घर में कोई चीज ढूंढ़े से भी नहीं मिलती तो सबसे पहले शक गरीब पर ही जाता है! इसके बाद अक्सर शुरू होता है उसे यातनाएं देने, धमकाने, मारने-पीटने, पुलिस में रिपोर्ट करने का सिलसिला, भले ही बाद में पता चले कि हमारा शक बेबुनियाद था। यों इस तरह के अपराध के कम-ज्यादा दोषी हम सभी हैं। इसका यह मतलब भी नहीं है कि सारे गरीब ईमानदार ही होते हैं और सारे अमीर बेईमान! लेकिन हमारे अवचेतन में सिर्फ गरीब के बेईमान-चोर होने की अवधारणा बेहद गहराई से पैठी हुई है। इसी अवधारणा का दूसरा रूप यह है कि किसी गरीब की ईमानदारी की खबर प्रमुखता से छापी जाती है।
ये एक ही मानसिकता के दो रूप हैं, दो पहलू हैं। दोनों रूप गरीब के अनिवार्य रूप से बेईमान होने की मानसिकता को बल देते हैं। इसके विपरीत समृद्धतर, बल्कि समृद्धतम वर्गों के लोगों की बेईमानियों-चोरियों-धोखाधड़ी के किस्से रोज ही छपते रहते हैं, जिनमें नेता, अफसर, उद्योगपति आदि शामिल होते हैं। मगर हम आमतौर पर यही मानते रहते हैं कि अमीर का तो पेट-भरा होता है तो वह क्यों बेईमानी-चोरी करेगा? दरअसल, एक यादव सिंह इंजीनियर ही नहीं है! आप ही बताइए कि कितने नेताओं, अफसरों, इंजीनियरों, उद्योगपतियों की ईमानदारी पर सामान्य तौर पर लोग भरोसा करते हैं? बहुत कम ऐसे हैं। लेकिन चोर फिर भी गरीब ही नजर आते हैं।
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