राजकिशोर

वे नहीं रहीं। वे कुछ दिनों से बीमार चल रही थीं। क्या बूढ़ा होना बीमार होना है? बिलकुल नहीं। लेकिन बुढ़ापा आदमी को इतना लाचार कर देता है, जो किसी बड़े रोग में ही संभव है। इसीलिए माना जाता है कि बुढ़ापा सबसे बड़ी बीमारी है। वे नब्बे पार कर चुकी थीं। अभी हाल तक वे हर तरह से स्वस्थ थीं। वृद्ध शरीर जितना करने देता था, वे बहुत शौक से करती थीं। पर अचानक उनकी मानसिक शक्तियां कमजोर होने लगीं। अब वे किसी को पहचानती तक नहीं थीं। असामान्य हरकतें भी करने लगीं। कोई बहुत अमीर परिवार होता तो उनकी सेवा में एक नर्स रख कर छुट््टी पा लेता। लेकिन उनके परिवार में यह यांत्रिक स्नेह मैंने कभी नहीं देखा। उनका बेटा, उसकी पत्नी, पौत्र, उसकी बहू, उनके दोनों बच्चे- सभी उनका इतना खयाल रखते थे, जिसे भविष्य में एक उदाहरण की तरह याद किया जाएगा।

प्रेम और सम्मान के सिवाय उनसे हमारा कोई और रिश्ता नहीं था। पहले उनके बेटे से संपर्क हुआ। फिर उनकी बहू से। उसके बाद परिवार के अन्य लोगों से। कुछ इस तरह कि हमारा पारिवारिक रिश्ता बन गया। पूरा परिवार हम पर जान छिड़कता था। हम भी उन सभी से प्यार करते थे। तीज-त्योहार पर लेना-देना शुरू हो गया। बहुत जल्द हम एक बृहत परिवार के अंग बन गए। उनके बेटे को सिर्फ मित्र कहने से काम नहीं चलेगा। वे हमारे लिए भाई की तरह हैं।

जब हम कोलकाता से उजड़ कर दिल्ली आए, तो धीरे-धीरे मित्रों का एक वृत्त बन गया। हम सभी अलग-अलग उम्र और पद के थे, लेकिन आपस में बराबरी का संबंध था। फिर कोई कहीं रहने लगा, कोई कहीं। हमारी मित्रमंडली बिखर गई, हालांकि उनमें से हर एक से हमारी मित्रता कायम है। लेकिन भाई का संबंध सिर्फ कायम नहीं रहता, वह निरंतर क्रियाशील रहता है। दिल्ली हमारे लिए अजनबी थी। लेकिन हम यहां तसल्ली के साथ रह सके, इसका एक कारण मस्तराम कपूर थे, दूसरा ये भाई, जिन्हें सिर्फ देना आता है।

कहा गया है कि खून पानी से गाढ़ा होता है। संकट में परिवार के लोग ही काम आते हैं। संभव है यह सही हो, पर मेरे अनुभव इसका बहुत ज्यादा समर्थन नहीं करते। मैंने पाया है कि बृहत परिवार जैविक परिवार से ज्यादा सहायक होता है। परिवार अपनी जगह है- उसका भी महत्त्व है, पर बृहत परिवार की महिमा अपार है। जैविक रिश्ते पसंद या नजदीकी पर निर्भर नहीं होते। वे रिश्ते सिर्फ इसलिए होते हैं कि आपका जन्म किसी खास परिवार में हुआ है। ये रिश्ते बनाने नहीं पड़ते, जन्मजात होते हैं। दोस्ती टूट सकती है, पुरानों की जगह नए दोस्त आ जाते हैं, लेकिन आप अपना भाई या बहन नहीं बदल सकते। एक भाई दूसरे भाई की हत्या कर दे, तब भी उन्हें भाई ही कहना पड़ेगा।

बृहत परिवार होता नहीं है, जोड़ना पड़ता है। इसका हरेक सदस्य किसी खास घटनाक्रम से आता है। कहीं साथ-साथ नौकरी या व्यवसाय, कहीं पड़ोस, कहीं पसंद, कहीं भरोसा- पता नहीं किस-किस रास्ते से एक आदमी हमारे पारिवारिक वृत्त में प्रवेश कर जाता है और अपनों से भी ज्यादा अपना हो जाता है।

लेकिन एक बृहत्तर परिवार भी होता है। जब वे मरीं और हम शोक मनाने उनके घर गए, तो वहां लगभग दो दर्जन लोग थे। जब हम शवदाह करने श्मशान पहुंचे तब और ज्यादा लोग थे। लेकिन उनकी स्मृति में जो सत्संग हुआ, उसमें दो सौ से कम लोग नहीं थे। इनमें से अधिकतर को हम जानते नहीं थे, न वे हमें जानते थे। जो चली गर्इं, वे भी नहीं जानती होंगी। तो वह कौन-सा रिश्ता था, जो एक आदमी को इतने बड़े समूह से जोड़ रहा था?

वे निरंकारी थीं और हम जहां स्मृति-भजन करने गए थे, वह निरंकारी सत्संग भवन था। यहां निरंकारी नियमित रूप से आते हैं और सत्संग करते हैं। वे भी बीच-बीच में यहां आया करती थीं। जब उनका देहांत हुआ, तो वे तमाम अनाम-अजाने लोग उनकी शोक-स्मृति में शामिल हो गए। यानी परिवार और बृहत परिवार से भी बड़ा एक परिवार था, जिससे वे जुड़ी हुई थीं। यह संबंध निरंकार पंथ की सदस्यता पर आधारित था। ‘इक तू ही निरंकार’ के प्रति समर्पण भाव से पगा हुआ था। इसलिए निस्स्वार्थ और निश्छल था। यह वैसा संबंध था, जो एक ही मंजिल की तरफ जाने वाले मुसाफिरों में उग आता है।

अन्य पारिवारिक संबंध जन्म या दोस्ती पर आधारित होते हैं, यह संबंध विचारों और भावनाओं की एकता से बनता है। इस एकता की बुनियाद विचार, सिद्धांत या मत पर टिकी होती है। यहां प्रेम के बाद विचार नहीं बनता, बल्कि विचार के बाद प्रेम आता है। मैंने अनेक शवयात्राओं में देखा है कि परिवार के तो चंद लोग हैं, पर बृहत्तर परिवार के अनगिनत। जिसने इस बृहत्तर परिवार को नहीं जाना, वह अभागा है।

 

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