विजय विद्रोही

बेटी को मुंबई जाना था। टाटा इंस्टीट्यूट आॅफ सोशल साइसेंज में महिला अध्ययन में लिखित इम्तहान और फिर साक्षात्कार होना था। इसके मद्देनजर उसे महिला मुद्दों पर कुछ बता रहा था कि कैसे राजस्थान में बाल विवाह रोकने में लगी भंवरी देवी के साथ बलात्कार हुआ था, सालों मुकदमा चला। जिस भंवरी केस के कारण कामकाजी महिलाओं के खिलाफ यौन शोषण को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने सख्त दिशा-निर्देश जारी किए थे, वह आज भी न्याय के लिए भटक रही है; कैसे देश में बलात्कार के खिलाफ कानून तो सख्त हुआ, लेकिन सजा की दर घटती गई; कैसे पिछले दस सालों में महिलाओं को नौकरी मिलने के मौके पंद्रह फीसद तक कम हो गए हैं। देश में ही रेवाड़ी जिले में प्रति हजार पुरुषों के मुकाबले छह सौ सत्तर महिलाएं ही रह गई हैं। दिल्ली में भी यह आंकड़ा प्रति हजार पुरुषों पर महज आठ सौ पनचानवे महिलाओं का है। देश में साठ फीसद से ज्यादा महिलाओं को खुले में शौच के लिए जाना पड़ता है। बांग्लादेश में यह आंकड़ा सिर्फ तीन फीसद है।

यह सब बताते हुए मुझे शर्म आने लगी। इस बीच ढेरों कानून बने, आंदोलन हुए, संसद में बहसें हुर्इं, हर साल आठ मार्च को महिला दिवस मनाया गया, लेकिन महिलाओं के सामाजिक-आर्थिक हालात और बदतर ही हुए। आखिर इसके लिए जिम्मेदार कौन हैं? खुद पर भी गुस्सा आया कि पच्चीस साल मीडिया में गुजारने के बाद क्या मैं महिला मुद्दों को उतनी ईमानदारी और गंभीरता के साथ उठा पाया। पत्रकारों के अलावा लेखक, कलाकार, साहित्यकार- सब कहां चूक गए? मेरी शर्म यह है कि हम देश की बेटियों को मान-सम्मान, सुरक्षा और अधिकार नहीं मुहैया करा सके, राजनीतिकों की शर्म है कि निर्भया पर बने एक वृत्तचित्र से दुनिया में देश शर्मसार होगा!

मुझे याद है 1991 का वह दिन जब सुराग मिला कि राजस्थान सरकार की साथिन भंवरी देवी का उसके गांव भटेरी में बलात्कार हुआ है। इसकी पुष्टि के बाद अगले दिन जयपुर के एक अखबार में पहले पन्ने पर मेरी खबर छपी थी। महिलाओं के लिए काम करने वाली ममत जेठली ‘विशाखा’ नाम की संस्था चलाती थीं। उनके यहां संवाददाता सम्मेलन हुआ। उसमें मर्द क्राइम रिपोर्टरों ने ऐसे सवाल पूछे जैसे भंवरी देवी से पुलिस ने भी शायद नहीं पूछे हों। उसके बाद हमारे अखबार में भंवरी देवी पर एक खबर पुलिस के कोण से क्राइम रिपोर्टर की छपती तो दूसरी महिला संगठनों के पहलू पर मेरी छपती। आरोपी चूंकि एक दबंग जाति से थे, लिहाजा वोट बैंक के खयाल से खबर में राजनीतिक कोण भी आ गया था। बाद में पुलिस और राजनीतिक पक्ष हावी होता चला गया और महिला संगठनों की विज्ञप्तियां आनी भी कम हो गर्इं। मामला अदालत में गया। खबर आई कि भंवरी केस हार गई। फिर उसे मीडिया भूल गया।

एक दिन भंवरी पर फिल्म बनाने के लिए फिल्म निर्देशक जगमोहन मूंदड़ा के जयपुर आने की खबर आई। तब तक खबरिया चैनलों की संख्या बढ़ चुकी थी। भंवरी के दुख से ज्यादा तवज्जो फिल्म को मिली। टीवी चैनल जयपुर से करीब पचास किलोमीटर दूर जयपुर-आगरा रोड पर भटेरी गांव पहुंचे, जहां भंवरी मटके बना रही थी। वह गुस्से में थी। उसने सबको भगा दिया तो मीडिया खफा हो गया। फिल्म आकर कब परदे से उतर गई, पता नहीं चला। मगर भंवरी को बदनाम किया गया कि उसने लाखों रुपए मूंदड़ा से लिए। यह खबर बेबुनियाद थी। फिल्म बनने के कुछ दिनों बाद भंवरी का बेटा मेरे पास आया था। उसके पास फीस चुकाने के पैसे नहीं थे।

1998 की एक और घटना याद है। स्थानीय अखबार में छपा कि जैसलमेर के देवड़ा गांव में दस मई को आजादी के बाद पहली बार बारात आएगी। पता चला कि गांव में एक सौ दस साल बाद कोई बारात आई। गांव के सरपंच इंदर सिंह ने बताया कि जब बेटी पैदा हुई, उससे कुछ दिन पहले ही उनके बेटे की मौत हुई थी। बेटी हुई तो इंदर सिंह की पत्नी ने कहा कि बेटा ही बेटी के रूप में लौट आया है। इंदर सिंह ने बेटी को रख लिया। नहीं तो बेटी को कुएं में गिरा दिया जाता था। इसके बाद बहुत से कुछ लोग बेटियों को जिंदा रखने लगे। इसके बाद सरकार को गांव में बच्चियों के लिए स्कूल की व्यवस्था करनी चाहिए थी, लोगों को बेटी के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए था, इसका प्रचार-प्रसार करना चाहिए था। लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया गया। करीब चार साल पहले एक खबर पढ़ी। इंदर सिंह के एक भतीजे के यहां पैदा हुई नवजात बेटी की रहस्यमय हालत में जैसलमेर के अस्पताल में मौत हो गई। आरोप लगा कि बेटी को मार डाला गया। सवाल है कि 1998 में जिस गांव में बेटियों को जिंदा छोड़ देने की शुरुआत हुई, वहीं 2010-11 में फिर से नवजात बच्ची की रहस्यमय मौत क्यों हो जाती है? हमारी सरकार की नीतियां कहां से शुरू होती हैं और कहां खत्म हो जाती हैं? एक बार फिर पुराना नारा नए अंदाज में उछला है- ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ!’ अब तो नारे भी डराने लगे हैं!

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