संजीव ठाकुर

कक्षा की पिछली बेंच पर बैठे किसी आइंस्टीन की तलाश के लिए पारखी की नजरों की आवश्यकता होती है। जिसे नकारा घोषित कर विद्यालय से निकाल दिया जाता है, वही बालक आगे चल कर युग परिवर्तनकारी ‘सापेक्षता का विशिष्ट सिद्धांत’ दे जाता है। न्यूटन के ‘गति के सिद्धांत’ हमारी जिंदगी को द्रुतगति से आगे की ओर अग्रसर करते हैं। ये इस तरह के बालक थे जो परंपरा और लीक से हट कर चलते हैं, और परंपराओं पर गहरी चोट करते हैं। जो समाज से सुना, उसे सुन कर रह नहीं जाते हैं और जो समाज में देखा, सिर्फ उसे देख कर नहीं रह जाते हैं, बल्कि उस पर चिंतन मनन कर नई धारणा और सिद्धांतों को प्रतिपादित करते हैं और विश्व को उसकी सौगात भी देते हैं।

हमें इन महान बालकों को गरीब बस्तियों से लेकर गली-मोहल्ले और शहरों में खोजना चाहिए। बेंजामिन फ्रैंकलीन की राय है कि बिना वैचारिक स्वतंत्रता के बुद्धि जैसी कोई चीज हो ही नहीं सकती है। हम वर्तमान में जिस समाज में हैं और जिस समाज से हमने सभ्यता का विकास की शुरुआत की है, उसका जब सूक्ष्म विश्लेषण करते हैं, तो यही पाते हैं कि अपनी आजादी के तमाम तामझाम बनाने वाला इंसान दिन-प्रतिदिन अपनी बनाई दुनिया के बोझ तले गुलाम होता जा रहा है।

आज हमारी शिक्षा व्यवस्था ऐसी हो गई है कि बचपन बस्ते के बोझ तले दबता चला जा रहा है। जबकि इसे ऐसा होना चाहिए कि बच्चों को किताबी कीड़ा बनाने के बजाय उसकी नैसर्गिक रचनात्मक प्रतिभा को उभार कर जीवन उपयोगी बनाए। बच्चों का मूल्यांकन सिर्फ इसी आधार पर नहीं होना चाहिए कि उसने कितने अंक प्राप्त किए हैं, बल्कि यह देखा जाना चाहिए कि उसकी रुचि किस क्षेत्र में ज्यादा है और वह जीवन में इस क्षेत्र में आगे बढ़ कर एक सफल इंसान और समाज के लिए कितना उपयोगी हो सकता है। वह खेल, साहित्य, संस्कृति, विज्ञान में कितना अपनी शक्ति और क्षमता के हिसाब से क्या प्रदर्शन कर सकता है। माता-पिता और अभिभावकों को इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि उसे जबरिया डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक या अधिकारी बनाने के बजाय उसकी रुचि के मद्देनजर उसका कॅरियर चुनने की आजादी देने में मदद की जाए।

अधिकतर भारतीयों ने जो अनुसंधान या नई खोजें की हैं, वह सब विदेशों में जाकर वहीं की सुविधाएं प्राप्त कर। भारत में गणित, विज्ञान तकनीकी संचार, इंजीनियरिंग, मीडिया शोध की बहुत आवश्यकता है। यह अफसोस की बात है कि हम अपने युवा देश के युवा साथियों को उत्कृष्ट मंच अनुसंधान या साहित्य, संस्कृति, विज्ञान और अन्य क्षेत्रों में नहीं दे पा रहे हैं। प्रतिभा पलायन को रोक कर हमें अपने बच्चों को बाल्यकाल से उनकी रुचि के अनुसार सुविधाएं प्रदान कर नई चीजों के लिए उन्हें प्रोत्साहित करना चाहिए। हमारे अभिभावक, समाज और सरकार को चाहिए कि बचपन से सृजन क्षमता को आगे बढ़ा कर जिंदगी के बहुत से पाठ खुद सीख कर उनके उत्तर तलाशने में उन्हें सक्षम बनाएं।

यह एक प्रकार का मनोविज्ञान भी है। यह मनोविज्ञान माता-पिता, भाई, बहन और बच्चों को समझ में आए, ऐसा उनके बाल काल से ही व्यवहार के रूप में समझाना होगा। तब जाकर वह बच्चा देश और समाज के लिए उपयोगी नौजवान बन पाएगा। दार्शनिक रूसो ने कहा है कि मनुष्य स्वतंत्र जन्म लेता है, लेकिन सामाजिक बंधनों द्वारा जकड़ लिया जाता है। जरूरी है कि बच्चों को शरू से ही बंधनों से स्वतंत्र रखा जाए। अतिवाद और रूढ़िवाद से परे उन्हें स्वतंत्र विचार करने की मौलिकता और क्षमता को विकसित होने की प्रक्रिया में अनुसरण करने का मौका दिया जाए, ताकि हम जिस लोक में जी रहे हैं, उस समाज को नए रूप में वक्त के साथ बदला जा सके।

यों देखा जाए तो हम जिस पूंजीवादी बाजारवादी व्यवस्था में सांस ले रहे हैं, वहां हम एक निजी स्वार्थी व्यक्तित्व का निर्माण करने में व्यस्त हैं। आज के युग में हर युवा आगे बढ़ने की ललक में वस्तुओं का सृजन करने के बजाय सब कुछ तैयार सामान लेने की व्यवस्था का अनुगामी बन गया है। इस तरह हमारे समाज की विचारधारा और बुद्धि भी रेडीमेड हो चुकी है। हम अंकुरित होते पौधे को ज्यादा से ज्यादा खाद-बीज डाल कर एक खोखला और आधारहीन कमजोर वृक्ष बनाने का प्रयास कर रहे हैं जो हमें दिशाहीन अंधेरे की तरफ ले जा रहा है। हमारी समूची युवा अपनी की वैचारिकता को दीमक लगाने जैसा काम कर रही है।

किसी ने यह भी सच कहा है कि ‘विचारों का रास्ता पेट से होकर गुजरता है’। स्वतंत्र विचारों को बचपन से प्रोत्साहित करने के उपायों में एक प्रमुख उपाय गरीबी दूर करना है। लेकिन बाल श्रम को भी हतोत्साहित करने का प्रयास किया जाना चाहिए, जिससे बच्चा स्कूल से दूर होकर अपने पेट भरने तक सीमित रह जाता है। दूसरे क्रम में विचारधारा को विकसित करने के लिए अच्छे और विद्वान शिक्षकों की स्कूलों में नियुक्ति की जानी चाहिए, क्योंकि शिक्षक ही मां-पिता के बाद बच्चों को मानसिक रूप से प्रभावित करने वाला एक आधार स्तंभ होता है।