कुंदन कुमार
एकांत और अकेलापन को आमतौर पर हम सबसे अलग रहने की मनोदशा के आधार पर एक ही शब्दों का पर्याय समझ बैठते हैं। लेकिन एकांत और अकेलापन के बीच का महीन अंतर दोनों को नदी के दो किनारों के समान बना देता है। अकेलापन का शिकार व्यक्ति दुखों के अथाह सागर में डूबा रहता है। यह स्थिति व्यक्ति के रचनात्मकता को लील जाती है। उसके चीखने की आवाज तो खूब गूंजती है, लेकिन कोई उसके दुख का साथी नहीं होता। वह अपना रंजो-गम अपने आसपड़ोस के लोगों से बांटना चाहता है, लेकिन अकेलेपन का भाव उसे ऐसा करने से रोकता है। इससे व्यक्ति उस खोखले पेड़ के समान हो जाता है जो हवा का एक झोंका भी बर्दाश्त न कर सके और भरभरा कर गिर जाए। अकेलापन हमारे सुंदर जीवन को अवसाद जैसे विकृत मनोरोग का शिकार बना देता है, जिससे उबरना मुश्किल तो नहीं, लेकिन आसान भी नहीं होता। जबकि एकांत मार्ग का अनुयायी जीवन के मोहमाया, लोभ, अहंकार और विद्वेष से छुटकारा पाकर दुखों के संसार से मुक्त हो ज्ञानमार्ग पर अनवरत यात्रा करता रहता है।

एकांत जीवन व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास का द्योतक है। यह उस उर्वर जमीन के समान है, जिस पर रचनात्मकता के अंकुर प्रस्फुटित होते हैं। महात्मा बुद्ध, महावीर, रैदास सरीखे महान विभूतियों ने एकांत के सरंक्षण में ज्ञान का ऐसा दीप जलाया, जिससे दुनिया कई सदियों से आलोकित होती आ रही है। एकांत जीवन जीने वाला व्यक्ति कल्पनाओं का पंख लगा सृजन के आकाश में ऐसा उड़ान भरता है कि उसके उड़ान से दुनिया चकित रह जाती है।

मेरे गांव में एक विशाल बरगद का पेड़ है, जिसके नीचे पत्थर की दो मूर्तियां रखी हुई हैं। लोगों की ऐसी मान्यता है कि इस पेड़ के नीचे गांव के कुलदेवता निवास करते हैं और आफत से गांव को बचाते हैं। रूढ़ परंपराएं आधुनिक समाज का मार्गदर्शन नहीं कर सकती, लेकिन कुछ परंपराएं ऐसी हैं, जिन्हें हम रूढ़ समझते हैं और वे किसी न किसी रूप में जीने का मार्ग सिखाती हैं। पेड़ों को ईश्वर मानने की परंपरा न जाने कब से चलती आ रही है। महात्मा बुद्ध को बोधिवृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई। लोग पेड़ को ईश्वर का स्थान मान कर आस्था के चलते पीपल, अशोक, बरगद जैसे वृक्षों को काटने से परहेज करते हैं।

इसी मान्यता के चलते हमारे गांव के बीच में स्थित बरगद का पेड़ बहुत सम्मान पाता है। मैं जब भी गांव आता हूं और मुझे एकांत की शांति और सुकून की चाहत होती है तो मैं उस बरगद के पास चला जाता हूं। प्रकृति की सोहबत हमें बहुत कुछ सिखा देती है। मनुष्यों में एकता का भाव कहां से और कैसे उत्पन्न हुआ? अगर मनुष्य साथ-साथ न रहता तो फिर क्या होता? इन सारे सवालों का जवाब ढूंढ़ना शायद आसान है और नहीं भी है। जरूरतों ने हमारे पूर्वजों को साथ रहना सिखाया। उन्हें एकता के सूत्र में बांधा। जीवन के शुरुआती चरण में जब मानव खानाबदोश जिंदगी जी रहा था, तब जंगली पशुओं से बचने के लिए वह समूह में रहने लगा। तभी से आज तक हम समूह में रहते आ रहे हैं। यानी वक्त और जरूरत ने हमें साथ रहना सिखा दिया।

बरगद के पेड़ के नीचे लोगों के आराम करने के लिए एक चबूतरा बना हुआ है। जेठ की दुपहरी में गांव के लोग चिलचिलाती धूप से बचने के लिए बरगद के पेड़ की छांव में आराम फरमाते हैं। खूब चौपाल जमता है। देश-दुनिया की बातें होती हैं। उसी चबूतरे पर हमने देखा कि चींटियों का एक झुंड कहीं से आ रहा था। चींटी एक ऐसी सामाजिक कीट है, जिससे मनुष्य ने बहुत कुछ सीखा है। हम पढ़ते-सुनते आए हैं कि लोगों ने अनवरत बगैर थके प्रयास करते रहना और अंत में मंजिल तक पहुंच जाना चींटियों से ही सीखा है। जब चींटियों ने हमें अनवरत प्रयास करते रहना सिखाया तो यह भी संभव है कि चींटियों ने ही हमें एकता का पाठ भी पढ़ाया होगा। बहरहाल, एक दिन चींटियों पर हमारी नजरें टीकी थीं। हमने देखा कि चींटियों के समूह से एक चींटी अलग हो गई। काफी देर तक उसको मैंने इधर-उधर भागते देखा। दूसरी ओर सड़कों पर चलने वाली गाड़ियों के हॉर्न की आवाज वातावरण के एकांत को भंग कर रहा था।

शाम होने को थी। सूरज पश्चिम दिशा में डूबने को था। मैं बिछड़ी हुई चींटी की मनोदशा को महसूस कर सकता था। लेकिन उसे उसकी परेशानियों के जंजाल में छोड़ किसी स्वार्थी मनुष्य की तरह मैं भी वहां से निकल गया। रास्ते भर चींटी के अपनों से बिछड़ने का दुख मुझे हो रहा था। अपनों से बिछड़ने के बाद हमारा भी कहां कोई अस्तित्व रह जाता है। हमारे अस्तित्व की बुनियाद सामाजिक एकता पर टीकी है। चींटी ने फिर मुझे ऐसा पाठ पढ़ाया था, जो मुझे शायद ही किसी पुस्तक से सीखने को मिलता। अकेलेपन का शिकार आदमी भी चींटी की तरह अपनों से बिछड़ कर दुखों के दलदल में दर-बदर भटकता रहता है।