मोहम्मद जुबैर

सारी सफलता चरमरा जाती है, जब घर, समाज, दोस्त-यार से सामंजस्य नहीं बैठा पाते हैं और अकेलेपन के शिकार हो जाते हैं, खुद में ही खुद को नहीं ढूंढ़ पाते। हद तो तब हो जाती है जब बुद्धिमत्ता के दम पर निर्णय तो कर लेते हैं, लेकिन हम हमारे टुकड़े करने वाले को भी समझ नहीं पाते हैं। यानी यह कहने में जरा भी संदेह नहीं कि बुद्धिमत्ता के आगे कुछ तो है!

बुद्धिमान व्यक्ति के पास तर्क-वितर्क करने की क्षमता होती है और वह निर्णय लेने में सक्षम हो सकता है। बुद्धि के बल पर बहुत कुछ हासिल भी कर सकता है, लेकिन यह दावा नहीं किया जा सकता कि जीवन के हर पड़ाव में सफल ही सिद्ध होगा। हम जीवन जीने की कला को गणित की कसौटियों से नहीं सीख सकते हैं। जीवन जीने की कला आती है ज्ञान से। सुकरात के अनुसार, ज्ञान वही है जो व्यक्ति के व्यक्तित्व में उतर जाए। जो संभव होता है भावनात्मक बुद्धिमत्ता से।

समस्या तब आती है, जब हम अपनी या दूसरों की भावनाओं को समझ नहीं पाते हैं या अपने भाव दूसरों को समझा नहीं पाते हैं। दुनिया का असली खिलाड़ी वह है जो भावनात्मक रूप से परिपक्व है। यह भावनात्मक मजबूती खुद की परिस्थितियों से जूझकर अपनी या दूसरों के अनुभवों से सीखी जाती है। चूंकि जीवन छोटा है, सारे प्रयोग स्वयं के जीवन में नहीं किए जा सकते।

जन्म के समय व्यक्ति सामाजिक या समाज विरोधी नहीं होता, बल्कि समाज से तटस्थ होता है। एक पूरी व्यवस्था काम करती है उसे सामाजिक खांचे में पूरी तरह ढाल देने के लिए। आधुनिकता की अंधी दौड़ में हम व्यवस्था को ही पीछे छोड़ कर आगे निकल जाते हैं। फिर धैर्य, सहनशीलता, साहचर्य, सहानुभूति जैसे मूल्य हमारी सीखने की परिधि से बाहर हो जाते हैं। इस बीच हम मनुष्य से कब मशीन बन जाते है, यह तब समझ आता है, जब हम संबंधों के साथ सामंजस्य नहीं बैठा पाते।

सिर्फ बुद्धिमत्ता के बल पर अर्जित उपलब्धियां जीवन की वास्तविक सफलता नहीं बन पाती हैं। गौरतलब है कि परिवार में परवरिश की अति सजगता भी बच्चों के जीवन को जोखिम में ले जा रही है। बच्चों की हर जरूरत को पूरा करते रहना, उनकी सारी जिम्मेदारियां खुद ले लेना। ये उनके जीवन प्रशिक्षण को छीन लेता है, जो उन्हें बचपन ही में मिलना चाहिए था। सर्वविदित है एक नवजात पक्षी कभी उड़ान नहीं भर सकता, अगर उसे घोंसले से न गिराया जाए।

दरअसल, शिक्षण संस्थान की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है व्यक्ति को तराशकर सामाजिक खांचे में बैठाने की। शिक्षण संस्कृति जैसी हो चली है, उसमें अंकों की बेलगाम दौड़ बच्चों को रटने वाली मशीन बनाने पर जुटी है। वे भूलते जा रहे हैं कि मशीन बुद्धिमान हो सकती है, लेकिन मानवीय संबंध बनाने में सक्षम नहीं होती है। याद रहे कि कटर मशीन के लिए लकड़ी या इंसान में कोई फर्क नहीं। चूंकि इनमे भावना शून्य है। जबकि संबंधों के लिए भावना का होना जरूरी है।

मानव को समझना जटिल है। चूंकि वह शब्दों एवं भावों के खेल में खिलाड़ी होता है। भावनात्मक परिपक्वता के अभाव में व्यक्ति दूसरों के दोहरे चरित्र को समझ नहीं पाता। कई बार किसी के द्वारा कहे जा रहे शब्दों के उलट भाव एकदम विपरीत होते हैं और वह शब्दों में उलझकर बेहद जोखिम भरे निर्णय कर बैठता है। जबकि भावनात्मक रूप से परिपक्व व्यक्ति मौन की भाषा को भी बखूबी समझता है। कब कितनी प्रतिक्रिया करनी है, उत्पन्न विचारों एवं भावों को कब दबा देना हैं, वह बखूबी जानता है। यह खूबी उसके संबंधों को हमेशा बनाए रखती है।

बेहतर होगा शिक्षण संस्थानों में भावनात्मक शिक्षा को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए। जैसे कि वर्तमान में डेनियल गोलमैन द्वारा सुझाए गए प्रारूप को अमेरिकी शिक्षा के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है, जिसके सकारात्मक परिणाम भी सामने आ रहे हैं। अधिकतर विद्यार्थियों का अकादमिक निष्पादन सुधरा है और दुर्व्यवहार के मामलों में अट्ठाईस फीसद की कमी आई है।

व्यक्ति को निरंतर अपने आप को प्रशिक्षित करते रहना चाहिए। खुद को सुझाव देना और मूल्यांकन करते रहना भी आवश्यक है। वंचितों से मिलना, अजनबियों से बात करना भी हमें भावनात्मक रूप से मजबूत बनाता है। हमें दूसरों के अनुभवों से भी सीखना चाहिए। चूंकि इस जीवन की एक गलती अंतिम सांस साबित हो सकती है, इसलिए जीवन बहुमूल्य है, इसके मूल्य को समझने की जरूरत है।