सर्दियां शुरू होते ही हिमालय से उतर कर ‘सहेली’ मैदानों में आ जाती है। सहेली चिड़िया अधिकतर झुंड में रहती है। इनके झुंड में एक नर और दस-बारह मादाएं रहती हैं। नर-मादा, दोनों का रंग-ढंग एक जैसा होता है। कीड़े-मकोड़े इसके आहार हैं। यह चिड़िया अपनी खूबसूरती पर इतराती फिरती है। स्वभाव इनका यायावर का है। यही सहेली की शैली है और यही इसकी सामाजिक प्रणाली। ये प्रवासी पक्षी हैं, फिर भी इनका महत्त्व और लोकप्रियता सर्वोपरि है।

ऐसा लगता है, मानो यह हमारा ही पक्षी है। जब सहेली चली जाती हैं तो हमारा घर-आंगन, बाग-बगीचे सूने लगने लगते हैं। जिन शहरों में नदियां हैं, वहां आजकल श्वेत साइबेरियाई पक्षी दिखेंगे, क्रेन या सारस की तरह। उन्हें नौकाओं पर बैठ कर लोग बेसन का सेव खिलाते हैं और परिंदे बड़े चाव से इसे खाते हैं। पर इनके लिए यह नुकसानदेह है या नहीं, इसकी खबर लेनी चाहिए।

आज बच्चों को अपनी कक्षा में नहीं रहना। जंगल की सैर करना है। उनकी जिद के सामने किसकी चलती है! अचानक पत्तियों के बीच कोई सरसराहट सुनाई देती है और बच्चे खामोश हो जाते हैं। यह कौन-सी चिड़िया है? बच्चों का उत्साह, उनके सवालों की दनादन झड़ी, उनकी मासूम जिज्ञासा की आंच से मन में अजीब-सी गुनगुनी उत्तेजना दौड़ जाती है। परिंदों को देखना कितना दिलचस्प हो सकता है, यह बच्चे और शिक्षक दोनों के लिए कौतूहल का विषय हो सकता है! किसी परिंदे को देखने के लिए एक अद्भुत किस्म की तन्मयता, हठ और प्रकृति-प्रेम की दरकार होती है।

‘आर्निथोलाजी’ के नाम से पक्षियों के अध्ययन के लिए एक अलग वैज्ञानिक विधा है। पर अगर किसी परिंदे की आवाज, उसके चलने-फुदकने और उड़ने का तरीका आपके हृदय में तरंगें पैदा नहीं करता, तो फिर यह प्रेम नहीं पनपने वाला। उनसे प्रेम करने वाले और उनके बारे में एक शुद्ध अकादमिक अध्ययन करने वाले का फर्क संवेदनशील कवि और शुष्क ज्ञान से भरे आलोचक का फर्क है।

पक्षी हमें बड़ा ही बारीक और सजग अवलोकन सिखाते हैं। उनकी आवाज हमारी सुनने की क्षमता को महीन और तीव्र बना देती है। शायद ही कुछ लोग जानते हों कि एक कौवा, जिसे हम रोज अपनी छत और मुंडेर पर बैठा देखते हैं और उसे खदेड़ते रहते हैं, वह छत्तीस तरह की अलग-अलग ध्वनियां निकाल लेता है! उनके अलग-अलग अर्थ भी होते हैं। घर की मुर्गी दो सौ तरह की अलग-अलग ध्वनियां निकालती है! ‘चिड़ियों की तरह खाना’ एक भरमाने वाला मुहावरा है, क्योंकि अधिकतर पक्षी अपने वजन का दोगुना खाना खाते हैं।

यानी एक पचास किलो के इंसान के सौ किलो भोजन करने के बराबर है यह! पेंगुइन अकेली ऐसी चिड़िया है, जो सिर्फ तैर सकती है, उड़ नहीं सकती। साथ ही वही परिंदों के विशाल परिवार की अकेली सदस्य है, जो सीधे चल सकती है। पर यह तो बस ज्ञान है और परिंदों के बारे में ज्ञान बटोरना उनसे प्यार करना नहीं।

मेरे जीवन के कई वर्ष एक ऐसी जगह बीते हैं, जो पेड़-पौधों और बेतरतीब जंगलों से पटी हुई है। अपनी पूरी सैर के दौरान हम गंगा को निहारते हुए चल सकते हैं। यहां एक घंटे की सैर के दौरान कम से कम सत्तर से अस्सी किस्म के परिंदे दिखाई देते हैं। इनमें से कइयों के मैं नाम तक नहीं जानता। उनका फुदकना, उड़ना, उनके रंग, उनकी आवाजें मन पर जादुई असर डालती हैं। हम इन परिंदों की अहमियत नहीं जानते। गिद्ध जैसे शानदार पक्षी को पूरी तरह खत्म करने की हम क्या कीमत चुका रहे हैं, इसका अंदाजा भी बहुतों को नहीं! शहरों के स्कूल भी अब आमतौर पर कंक्रीट से बनी निर्जीव इमारतों में बनते हैं। वहां भी पेड़-पौधे अधिक नहीं होते। इमारतें अब ऐसी बनती हैं कि परिंदों को गंदगी फैलाने वाली आफत की तरह देखा जाता है।

प्रकृति के सबसे मुखर और आदर्श प्रवक्ता है पक्षी। बच्चों के सामने वे एक मजेदार चुनौती भी प्रस्तुत करते हैं, जैसे कह रहे हों कि ‘आओ, मुझे पहचानो, मेरा नाम बताओ’। जो परिंदों में दिलचस्पी लेना शुरू करते हैं, वे स्वाभाविक रूप से अपने आसपास के वातावरण के प्रति भी संवेदनशील होने लगते हैं। परिंदों को देखना, उनकी परवाह करना और उनसे प्रेम करना कोई महंगा शौक नहीं। बस थोड़ा वक्त होना चाहिए और थोड़ा प्रेम।

अगली बार जब किसी झाड़ी में कोई सरसराहट सुनाई दे या ऊपर किसी वृक्ष पर कोई हलचल हो, तो जरा रुक कर देखिए। हो सकता है कुदरत का कोई अद्भुत उपहार आपकी प्रतीक्षा में हो और आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हो! क्या मुमकिन है कि अपने दिलों में कुछ हरी-भरी टहनियां संजो कर रखें, जिन पर आकर बैठ सकें परिंदे? परिंदों के पास पर होते हैं और गीत होते हैं। उनके पास एक लंबी उड़ान भी होती है। हो सके तो उन्हें कभी कैद न करें। पिंजरे में कैद पक्षी दुनिया के सबसे पीड़ादायी दृश्यों में से एक होता है।