संदीप ‘विहान’
जब भी मैं दिल्ली में मेट्रो से कहीं जाता हूं और रास्ते में यमुना के ऊपर से मेट्रो गुजरती है तो मन दुखी हो जाता है। ऐसा लगता है यमुना लगातार शहर से दूर हटना चाहती है, क्योंकि इस शहर ने नदी को विकास के नाम पर बहुत प्रदूषित किया है। यों लोगों के मानस में यमुना के लिए शायद श्रद्धा है, लेकिन इस श्रद्धा में प्रदूषित यमुना के लिए चिंता नजर नहीं आती। यह बताता है कि लोगों की स्मृति में यमुना के नाम पर श्रद्धा की स्मृतियां तो बची हैं, लेकिन नदी नहीं। यमुना नदी में तैरता कूड़ा-कचरा और खासकर प्लास्टिक की थैलियों का अंबार लोगों के सुविधावादी और उपभोक्तावादी होने की निशानी है। भूगोल में यह तो पढ़ाया गया कि मनुष्य की इच्छाओं की पूर्ति करने वाली वस्तुएं ही संसाधन हो सकती हैं, लेकिन मनुष्य की इच्छाओं की सीमाएं बढ़ती गईं और संसाधनों की पूर्ति की शक्ति ने जवाब दे दिया।
पृथ्वी और प्रकृति तो सभी जीवों के लिए सहअस्तित्व की जगह है, यह मनुष्य ने अपनी सुविधाओं के लिए भुला दिया है। आदिवासी जीवन में प्रकृति और पृथ्वी के साथ सहअस्तित्व की भावना मिलती है। सहअस्तित्व में दोनों का एक दूसरे के प्रति सम्मान भाव है, जो सिर्फ संसाधन की सोच तक सीमित नहीं है। कभी यमुना लालकिले की दीवार के साथ लग कर बहती थी, लेकिन अब वह लगातार दूर होती चली गई। हम जब घर में किसी बीमार व्यक्ति को देखते हैं तो पूरा परिवार उस व्यक्ति को लेकर चिंतित नजर आता है और उसको ठीक होने की स्थिति में लाने के लिए जुट जाता है। लेकिन लोक ने खुद को जैसे नदी की चिंता से अलग कर लिया है। कभी नदी लोक जीवन का अभिन्न अंग रहती थी।
प्राचीन काल से विभिन्न संस्कृतियां अपनी समृद्धि के स्तर पर नदियों के कारण पहुंची। हम सब नक्शे पर नजर घुमा कर देख सकते हैं कि दुनिया के सबसे समृद्ध शहर नदियों के किनारे बसे हैं। अब सवाल उठता है कि नदियों ने तो हमें समृद्धि दी, लेकिन हमने नदियों को क्या दिया? सिकुड़ती यमुना उसके बीमार होने का प्रतीक है। प्रदूषण के कारण उसका काला पानी नदी की बीमारी नासूर होते जाने की निशानी है। विकास के नाम पर नदी में अपशिष्ट और अपमार्जित पदार्थ भर गए। लेकिन इन सब चिंताओं के बावजूद हमने अपनी उन नदियों से मुंह मोड़ लिया, जो हमारे लोक का हिस्सा थीं।
हमने नदी की पारिस्थितिकी को लगभग नजरअंदाज करते हुए उसके हिस्से में और ज्यादा अतिक्रमण शुरू कर दिया। जिस तरह से मनुष्य ने अपने विकास के लिए लोकतंत्र को चुना, उस तरह नदी का भी लोकतंत्र उस नदी की पारिस्थितिकी होता है, जिसमें उसमें पाए जाने वाले जीव-जंतु और नदी के प्रवाह के आसपास पाई जाने वाली वनस्पति होती है। नदी पर सिर्फ मनुष्य का वर्चस्व ही नदी का लोकतंत्र नहीं हो सकता। यमुना को लेकर हमारी दिल्ली के दिल में चिंता होनी चाहिए थी। जब लोक चिंता करेगा, तभी सरकारें भी साथ देंगी।
नदियों को समझने के लिए मैं यहां पहाड़ी लोगों के रहन-सहन से एक उदाहरण लूंगा। मैं हिमाचल में एक जगह घूमने गया था। वहां गांव के बीच में पहाड़ से एक छोटी-सी नदी आकर गांव के बाहर मुख्य नदी में मिल जाती है। मैंने देखा कि गांव के लोग के घरों से निकलने वाला पानी गांव की उस नदी में नहीं मिलता। उनका कहना है नदी हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा है। जिस तरह हम अपना खयाल रखते हैं, उसी तरह इसका।
यमुना जिस रास्ते से होकर गुजरती है, वहां के लोगों के लोगों के सांस्कृतिक जीवन का हिस्सा रही है। हम इसकी गूंज को पुराने लोकगीतों में सुन सकते हैं। लेकिन जैसे-जैसे औद्योगीकरण को ही विकास मान लिया गया, वैसे-वैसे नदी लोक की चिंता से हट गई। जिस नदी ने हमारी सभ्यता को सहेज कर रखा, उसे हम सहेज न सके।
यूरोप में जब औद्योगीकरण हुआ तो पर्यावरणीय दशाओं को लेकर चिंतित लोगों ने विरोध किया। उस समय इस विरोध को देखते हुए औद्योगिक विकास के समर्थकों ने विरोध करने वाले लोगों को बेवकूफ करार दिया। उनका तर्क था कि वे सब तक सुविधाओं को नहीं पहुंचने देना चाहते। मनुष्य ने अपने स्वार्थ को ही विकास और लोक का सरोकार मान लिया। उसने जैव पारिस्थितिकी के तंत्र को हर जगह अंतिम छोर तक पहुंचा दिया। अंतिम से आशय उसके ह्रास बिंदु पर। हमारी विकास की परिभाषाओं में सारी जीव संपदा शामिल नहीं रही।
बस उसमें शामिल रहा तो मनुष्य और उसका स्वार्थ। नदी को सिर्फ मनुष्य का संसाधन मान लेना मनुष्य की भूल है। जब हम नदी को सहेजने का प्रयास करेंगे तो प्रकृति की सभ्यता बचेगी। सभ्यता को मनुष्य तक सीमित करने की सोच अत्यंत संकीर्ण है। प्रकृति की सभ्यता में सब जीवों और अजीवों के लिए जगह होनी चाहिए, तभी हम सतुंलित विकास की तरफ बढ़ेंगे और सहअस्तित्व के भाव को सोच पाएंगे।