इंदौर से ढाई घंटे की बस यात्रा में उन्हें इतना थक जाना चाहिए था कि एक लंबी चढ़ाई और बीसियों खड़ी सीढ़ियों को देख कर वे घबरा जाएं। रूपमती और बाज बहादुर की अद्भुत प्रेमकथा के साक्षी जहाज महल को नीचे से देख कर ही वे संतुष्ट हो जाते, तो किसी को आश्चर्य नहीं होता। उनकी औसत आयु अस्सी साल की देहरी पर दस्तक जो दे रही थी।

साथ आईं उनकी जीवन संगिनियां भी जीवन के अंतिम छोर में उसी दृढ़ता का परिचय दे रही थीं, जिसके भरोसे वे उनकी कठिन डगर में साथ चली थीं और अक्सर वियोग की लंबी घड़ियों को धीरज के साथ आत्मसात करती आई थीं। उनमें कुछ विधुर भी थे। सभी रूपमती की धार्मिक आस्था का सम्मान करने वाले उसके प्रेमी द्वारा बनवाए उस ऊंची पहाड़ी पर बने दर्शनमंडप तक चल कर गए, जिसका निर्माण उसने अपनी प्रेयसी को नर्मदा मैया का दर्शन कराने के लिए कराया था।

आयुजन्य शिथिलता का परिचय देना उन्हें मंजूर नहीं था। दिन भर के सैर-सपाटे के बाद अगले दिन वे फिर मुस्तैदी के साथ माहेश्वर तक साठ किलोमीटर की दूरी बस में तय करने के लिए तैयार दिखे, जबकि सेवाकाल में अधिकांश को फौजी जीपों और कारों में झंडे फहरा कर चलने की आदत थी। कुछ शिखरस्थ पदों पर पहुंच कर वायुसेना के विशिष्ट विमान के हकदार भी रह चुके थे।

सभी टैक्सियों में आराम से माहेश्वर तक जा सकते थे, लेकिन उन्हें तो सबका साथ चाहिए था, बस क्या, ट्रक भी कबूल होती। सबके मन में नर्मदा के मनोरम तट पर निर्मित प्रजावत्सला वीरांगना देवी अहिल्या बाई होलकर के रजवाड़े के दर्शन करने की उमंग थी। हां, किसी हद तक उनकी संगिनियों की प्रेरणा के स्रोत हथकरघे पर बुनी माहेश्वरी साड़ियां और कपड़े भी हो सकते थे।

कौन थे ये लगभग तीस (जवान) बूढ़े, जिनका मकसद था ‘जिंदगी जिंदादिली का नाम है?’ अंग्रेजी मुहावरा ‘बप्तिस्म बाई फायर’ यानी अग्निसाक्षी के साथ बपतिस्मा, भले उनकी धार्मिक विरासत का अंग न हो, लेकिन वे सभी द्विज थे। पार्थिव जन्म के बीस-इक्कीस साल बाद सबका दूसरा जन्म 1965 में भारत-पाक युद्ध की अग्निपरीक्षा के साथ हुआ था। लेकिन तब उनकी अनुभवहीनता युद्धरत जवानों का नेतृत्व करते हुए कुछ कर गुजरने के उनके जज्बे पर भारी पड़ी थी।

छह वर्ष बाद 1971 में जब पाकिस्तानी सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में अपने ही देशवासियों के रक्त से अपने हाथों को सान कर उनकी तरफ रुख किया, वे जल, थल, नभ तीनों सेनाओं में जवानों के नेतृत्व के लिए सबसे उचित आयुवर्ग के युद्धकुशल अधिकारी बन चुके थे। कप्तान, मेजर और नौसेना और वायुसेना के समकक्ष पदों से उन्होंने भारत की यशस्वी सेनाओं के जमीनी स्तर को जो मजबूती दी, वह इतिहास के पन्नों में जगह पा चुकी है। लेकिन अभी मंजिलें और भी थीं।

1998 में कारगिल में मूर्खतापूर्ण अभियान शुरू करने वाले पाकिस्तानियों को जब उन्होंने छठ्ठी का दूध पिलाया, वे भारत की तीनों सेनाओं में उच्चाधिकारी थे। धीरे-धीरे आयु उनके जज्बे के आड़े आती गई। एक थलसेना प्रमुख के पद से, लगभग दो दर्जन लेफ्टिनेंट जनरल, मेजर जनरल, और शेष ब्रिगेडियर और कर्नल आदि पदों से, दो वायुसेना में एयर मार्शल के पद से, दो नौसेना में वाइस एडमिरल के पद से और दर्जनों अन्य वरिष्ठ पदों से सेवानिवृत्त इन बूढ़े शेरों को जो राष्ट्रीय प्रतिरक्षा अकादमी (एनडीए) के रजत जयंती बैच यानी पच्चीसवें कोर्स के थे।

अब 2021 में साथ जीने, साथ मरने का जज्बा भारत के कोने-कोने से उन्हें खींच लाया था। उनकी बूढ़ी हड्डियों में बचा हुआ दमखम महू छावनी के कालेज आफ काम्बैट के सामने बने शहीद स्मारक पर अपने दिवंगत साथियों को श्रद्धांजलि देते हुए फिर से लहलहा उठा था।

शौर्य और बलिदान में तपे इन वरिष्ठ सूरमाओं ने संध्या में आयोजित एक रंगारंग कार्यक्रम में सिद्ध कर दिया कि जिंदगी जिंदादिली का नाम है। रसरंजन को वे पाप नहीं समझते और नृत्य-संगीत को भी जीवन का एक महत्त्वपूर्ण अंग मानते हैं। ऐसे में जब किसी फैशन शो की तरह रैंप पर अपनी जीवन संगिनी के साथ कैटवाक करने की चुनौती मिली, तो वायुसेना और बाद में एयर इंडिया के नवीनतम विमानों को दशकों उड़ा चुके एक वरिष्ठ साथी, जो अब वीलचेयर पर हैं, अपनी छड़ी और पत्नी का सहारा लेकर डगमगाते कदमों से कैटवाक के मोर्चे पर आकर हम सभी साथियों को भावुक कर गए, जो कभी उन्हें एक अच्छे धावक के रूप में जानते थे।

इस मैदान का पुराना खिलाड़ी होने के नाते मैं सोचता हूं कि अगर अस्त होते हुए जीवन की घड़ियों से हताश एक भी वरिष्ठ नागरिक मेरे इन फौजी गुरुभाइयों के जीवनमंत्र से प्रभावित हुआ, तो सबके सामने इस जिंदादिल दुनिया की एक झांकी प्रस्तुत करना सुफल हो जाएगा।