प्रेम प्रकाश
समाज में आपसी व्यवहार की यह छोटी-सी झलक बताती है कि हममें से ज्यादातर लोगों के बर्ताव का पैमाना कैसे निर्धारित होता है और हम किन लोगों को कैसे नजरिए के साथ देखते-बरतते हैं। सवाल है कि आखिर एक कमजोर माने जाने वाले व्यक्ति के भीतर इस तरह की भावना कैसे और क्यों आती है? क्या यह हमारे लिए एक आईना नहीं है कि हमारी मानवीयता और संवेदनाएं टुकड़ों में बंटी होती हैं और आग्रहों और धारणाओं के मुताबिक ही उनकी अभिव्यक्त होती हैं?
यह सच्चाई है कि हमारे समाज में व्यक्ति के पद, पैसे, रुतबे से उसको इज्जत मिलती है। अनपढ़ को तो छोड़ दिया जाए, पढ़े-लिखे लोग भी सड़क पर गरीबी-अमीरी का भेद करते चलते हैं। बेहद महंगी कारों से चलने वाले लोगों के आगे पैदल, साइकिल, रिक्शा या तिपहिया में चलने वाले लोगों की हैसियत यों ही कम हो जाती है। हाल में हम सबने खबरों में देखा और पढ़ा भी कि कैसे घर के सामने मिट्टी के दीए बेचने वाले के दीए तोड़ दिए गए थे। आरोप एक उच्च अधिकारी के परिवार पर था। यह सब देख और सुनकर एक बात तो स्पष्ट होती है कि कहीं न कहीं व्यक्ति का गरीब और कमजोर होना उसके शोषण और उसके साथ भेदभाव का कारण है। समाज में एक मजदूर, किसान, नाई, लोहार, जुलाहे, दर्जी, सब्जी बेचने आदि पेशे से जुड़े लोगों को वह सम्मान नहीं मिल पाता है जो नेता, अफसर, डाक्टर, इंजीनियर या बड़े कारोबारियों को मिलता है। आज भले हम अपने को बुद्ध, महावीर, नानक, गांधी, आंबेडकर के देश के नागरिक बोलें, लेकिन आम आदमी और खास आदमी में जमीन-आसमान का फर्क है।
हाल ही में आई एक खबर के मुताबिक, उच्चतम न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश ने एक कटाक्ष किया, जिससे भारतीय समाज के स्तरीकरण और उसकी मानसिकता को समझने में मदद मिलती है। उनके मुताबिक, कई जगह ऐसी परंपरा है कि जब हाईकोर्ट के जज खाना खा रहे होते हैं तो जिला जज खड़े रहते हैं। न्यायमूर्ति की यह बात सोचने पर मजबूर कर देती है कि जब देश की न्यायपालिका में यह स्थिति है तो इतने विशाल और विविध मुल्क के बारे में क्या कहने! और हम हैं कि इस परिपाटी को आगे बढ़ा रहे हैं और अपने से छोटे ओहदे के इंसानों से मुंह मोड़ कर ताकतवर इंसान से रिश्ते बुनने में लगे पड़े हैं। उनके सामने नतमस्तक हो रहे हैं। उनका यशगान कर रहे हैं।
हमें अपने व्यवहार को भी समावेशी बनाने की जरूरत है। सिर्फ पढ़ाई, डिग्री, कौशल, संसाधन इकट्ठे कर लेने से हमारा सर्वांगीण विकास नहीं हो जाएगा। हमारे शब्दों में बहुत ताकत है। क्यों न हम शब्दरूपी इस ऊर्जा से सामने वाले व्यक्ति के चेहरे पर मुस्कान ला दें! किसी को भी सम्मान इसलिए दें, क्योंकि वह भी हमारे जैसा ही एक इंसान है। कोई भी किंतु-परंतु की जगह नहीं रहनी चाहिए। यह तभी आएगी हमारे अंदर जब हम हर किसी को एक और बराबर नजर से देखेंगे। शायद तभी गांधीजी के विचारों के साथ न्याय होगा और समाज के आखिरी छोर पर खड़े असहाय व्यक्ति को उचित सम्मान मिल पाएगा!
एक खूबसूरत बात बहुतों की नजर से गुजरी होगी कि जैसा आप अपने लिए दूसरों से व्यवहार की उम्मीद रखते हैं, वैसा ही व्यवहार आप भी दूसरों के साथ करें। जब अलग-अलग परिस्थिति और जीविका में लगे लोगों की गरिमा का खयाल रखा जाएगा, तभी संविधान के उद्देश्य यानी समता, स्वतंत्रता, बंधुता और न्याय की संकल्पना साकार हो पाएगी।
इसके लिए इंतजार करने के बजाय अभी से यह कहना चाहिए कि जिससे भी रिश्ता जोड़ा जाए, उसमें तनिक भी पूर्वाग्रह नहीं हो। जाति, धर्म, पेशा, लिंग, पैसा, भाषा आदि सभी चीजों से ऊपर उठकर मानवतावादी विचार को अपने जेहन में रखा जाए और हर किसी से विनम्रतापूर्वक प्यार के दो मीठे बोल बोला जाए। हर एक रिश्ते को प्रेम और सम्मान की बुनियाद पर खड़ा किया जाए।
