महानगर की दौड़-धूप भरी जिंदगी में ऋतुओं की आहट और पर्वों की गहमागहमी का पता ही नहीं चलता है। कुछ हद तक पर्यावरणीय प्रभाव के कारण ऋतुओं का स्थगन, अतिक्रमण भी इसके लिए उत्तरदायी है। सर्दियां खिसक कर फागुन तक पहुंच गई हैं और बेमौसम बरसात फसलों को चौपट कर देती है। ऐसे में जनजीवन की व्यस्तता, आर्थिक चक्र के तेज घूमते पहिए की जद में लगभग सब कुछ आ गया है।
वसंत हो या शिशिर, उसका अहसास और उमंग लुप्त हो गया है। वसंत के आगमन पर आम्र मंजरियों पर बौर आ जाती है। बाग-बगीचे कचनार के फूलों की गुलाबी लालिमा से मानो ऋतुराज की छेड़छाड़ से लजा उठते हैं। पीली सरसों से खेतों में स्वर्णिम आभा बिखर जाती है। कालिकापुराण में सर्वप्रथम शिव के मन में विकार उत्पन्न करने के लिए कामदेव ने साथी मांगा। तब ब्रह्मा ने साथी के रूप में वसंत का सृजन किया।
गुप्त युग और उसके बाद के ग्रंथों में वसंत पंचमी उत्सव मनाने का उल्लेख मिलता है, जो कि नृत्य, संगीत और कलाओं से संबंधित होता था। यह समारोह फाल्गुन की पूर्णिमा तक चलता था। इन्हें मदनोत्सव कहा जाता था। बाणभट्ट के हर्षचरित और कादंबरी में इस उत्सव का वर्णन मिलता है। मालविकाग्निमित्र, दशकुमारचरित और वर्षक्रियाकौमुदी में भी मदनोत्सव का वर्णन है।
युवतियां आम्रमंजरी लेकर उन्मत्त नृत्य करती थीं। कालिदास ने ऋतुसंहार में कहा है- वसंते द्विगुने काम:, अर्थात वसंत के समय काम का प्रभाव दोगुना बढ़ जाता है। लोक साहित्य में उल्लेख मिलता है कि वसंत बूढ़ों को भी जवान कर देता है। मध्यकाल के दो प्रमुख कवियों अमीर खुसरो और मलिक मुहम्मद जायसी के यहां साहित्य वसंत के प्रभाव में डूबा हुआ है।
जायसी का नागमती विरह वर्णन भी वसंतासिक्त है। लेकिन आजकल वसंत क्या सभी ऋतुओं और उत्सवों का आनंद धन और आजीविका के संघर्ष के कोलाहल में डूब गया लगता है। वसंत उत्सव पर स्कूल और कालेजों में होने वाले सरस्वती पूजा और वसंत पंचमी उत्सव समाप्त हो चुके हैं।
हमारे महाविद्यालयी दिनों में वसंत पंचमी पर महाकवि निराला के जन्मदिन का उत्सव धूमधाम से आयोजित किया जाता था। काव्य और संगीतमय आयोजन होते थे। छात्र-छात्राएं ही नहीं अध्यापकगण भी पीले या वासंती परिधान पहन कर आते थे। घरों में मीठे केसरिया चावल बनाए जाते थे और बाकायदा सरस्वती पूजन होता था। पत्र-पत्रिकाएं वसंत पर विशेष अंक निकालते थे।
वसंत का भौतिक अहसास भले क्षीण होता जा रहा हो, लेकिन बौद्धिक अहसास बचा हुआ था। पर अब जनमानस की स्मृति से यह वासंती अनुभूति समाप्त होने के कगार पर है। जन मन का उल्लास गायब है। प्रकृति को निहारने का समय ही किसके पास बचा है? हम अपने आसपास के परिवेश से असंपृक्त होकर जीवनयापन कर रहे हैं। न उसमें नई फसलों के आगमन की गमक है न ऋतु परिवर्तन की आहट के प्रति सजगता और प्रफुल्लता। हमारी नई पीढ़ी तो शायद फूले हुए कचनार और डहेलिया, गेंदे तथा सूरजमुखी पुष्प के अंतर को ही न पहचान सके।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपने निबंध वसंत आ गया में लिखा है कि वसंत आता नहीं, ले जाया जाता है। पलाश के रक्तिम रंग से मानो वन उपवन दहक उठता है। जामुन पर वसंत आगमन सबसे विलंब से होता है। वसंत आगमन है मन के उत्साह का, नई स्फूर्ति का, नए उन्मेष का। उस सोई हुई चेतना के द्वार खटखटाने का, जिसने अंतस में निराशा और अवसाद रोप दिया है।
वसंत इन सब दुर्बलताओं को त्यागने का आह्वान है। उसके इस संदेश को समझना-बूझना पड़ता है। सेनापति का ऋतु वर्णन सर्वाधिक प्रभावी है। उन कवियों की दृष्टि से प्रकृति ओझल नहीं हुई है। वे लिखते हैं- बरन बरन तरु फूले उपवन वन, सोई चतुरंग संग दल लहियतु है। वसंत के पदार्पण के साथ ही वन उपवन अपनी चतुरंगी सेना के साथ आ बिराजते हैं।
वसंत पलायन का संदेश नहीं देता। वह स्वागत और उत्साह के वंदनवार बांधता है। आज का लेखक यथार्थ की दृष्टि रखता है। वह वसंत को सिर्फ विलासिता का द्योतक मानता है। वह व्यक्ति जो दो जून की रोटी के लिए दिन-रात पिस रहा है। उसके जीवन में वसंत का पदचाप कोई नव-संचार नहीं करता। वह उसके स्पर्श से अछूता रह जाता है। यह उसकी विवशता है, सौंदर्यबोध की कमी नहीं।
रोटी, कपड़ा और मकान की जुगत उसे सर्वथा नीरस बनाए दे रही है। भौतिकता से आक्रांत इस समय में प्रकृति की डोर ही हमारे हाथ से छूट गई है। करियर की लड़ाई में हमारा सहज उमंग भाव कहीं खो गया है। वसंत आना तो चाहता है, लेकिन उसके लिए दरवाजे तो खुले हों, मन की उर्वरा भूमि पर अंकुरण की गुंजाइश तो हो तनिक, ताकि फिर कोई गुनगुना सके पूरी उदात्त चेतना के साथ- सखि वसंत आया। भरा हर्ष वन के मन, नवोत्कर्ष छाया।