प्रेरणा मालवीया
पारंपरिक तौर पर हमारे परिवार और समाज में बच्चों का पालन-पोषण इस माहौल में होता है कि आमतौर पर उन्हें आज्ञा पालन करने और अपने बड़ों का बोझ ढोने में सक्षम बनाया जाता है और इसी पर हम खुश होते हैं। यों तो इस तौर-तरीके का असर समूचे व्यक्तित्व पर पड़ता है, लेकिन खासतौर पर पढ़ने-लिखने या उनके शिक्षित होने के ढर्रे के सामने सबसे ज्यादा चुनौती होती है। ऐसा इसलिए कि इससे उनके सोचने-समझने और व्यवहार करने का सलीका तय होता है। पढ़ाई-लिखाई में भी जटिल विषयों को लेकर परिवार से लेकर हमारी शिक्षा पद्धति आमतौर पर प्रयोगधर्मी नहीं रहा है। हम अक्सर बच्चों को या तो कम आंकते हैं या सब कुछ बता देने की हमें जल्दी होती है। या फिर हम बड़ों के रूप में शिक्षकों को भी इसी तरह से पढ़ाया गया है और हम उसे महज हस्तांरित करते हैं। पर एक शिक्षक की भूमिका में होने पर कक्षा के बाद हमें बच्चों की प्रतिक्रिया का विश्लेषण करना चाहिए, ताकि आगे की कार्ययोजना उसको ध्यान में रख कर तैयार की जा सके।

मुश्किल यह है कि हमें खुद भी प्रयोग करना सिखाया नहीं जाता। इसी कारण जब हम पढ़ाने की भूमिका में आते हैं तो हम भी वही प्रकिया अपनाने लगते हैं। उदाहरण के तौर पर गणित विषय पर काम के दौरान बच्चे अक्सर यह पूछते हैं कि इसमें क्या करना है, जोड़ना है या घटाना है? बता देने पर कई बच्चे कर भी लेते हैं। बहुत सारे बच्चे हिंदी विषय में भी यही करते हैं। एक और स्थिति भी देखने में आई कि जब उनको कहा जाता हैं कि प्रश्न पढ़ने की कोशिश करो तो वे कोशिश तो करते हैं, पर समझ नहीं पाते हैं।

सवाल है कि बच्चों की इस ऊहापोह, उलझन या अस्पष्टता का कारण क्या है कि बच्चे इस तरह से प्रतिक्रिया देते हैं। दरअसल, आमतौर पर बच्चों को निर्देश ही इस तरह के दिए जाते हैं। जैसे जोड़ के सवाल देने के बाद बच्चों को पहचाने दिया जा सकता है कि इसमें क्या करना है। वे चिह्न या संकेत देखें और यह तय करें कि कौन-सी संक्रिया करनी है। मगर जब उन्हें यह कहा जाता है कि जोड़ के सवाल करो तो फिर वे बिना चिह्न देखे या सवाल पूरा पढ़े सीधे उसमें दी गई संख्याओं को जोड़ने लग जाते हैं। इसके बजाए क्या यह प्रक्रिया भी अपनाई जा सकती है कि सवाल क्या कह रहा है या उसमें क्या चिह्न लगा है? इससे बच्चों में यह आदत विकसित होगी कि वे सवाल आने पर उसे ध्यान से पढ़ें और उसमें क्या करना हैं, यह खुद सोच कर तय करें।

दरअसल, बच्चों को सब कुछ बता देने के चक्कर में हम बड़े अनजाने में ही बहुत कुछ वह भी कर रहे होते हैं, जिससे बच्चों को खुद से सोचने और समझने के अवसर कम हो जाते हैं। यह आदत बच्चों में आगे की कक्षाओं में भी बनी रह जाती है। जिस तरह से हम बच्चों से उत्तर लिखने की अपेक्षा करते हैं, उसी तरह से वे प्रश्न को पढ़ें-समझें, यह आदत विकसित करना भी बहुत जरूरी है।

जब भी इस तरह की प्रक्रिया का जिक्र मैंने शिक्षकों से व्यक्तिगत या समूह में किया तो उनका कहना था कि बच्चों को बताना होता है कि क्या करना है… वे मन से नहीं कर पाते हैं। अगर माध्यमिक कक्षाओं तक बच्चों की यही स्थिति रहे तो हमें सोचना चाहिए। पढ़ कर समझना- यह भाषा का बड़ा कौशल हैं और यह प्रारंभिक स्तर पर ही हो जाना चाहिए। अन्यथा हम किस तरह से बच्चों की प्रगति को देख रहें हैं, इस पर हमें सोचना चाहिए। एक सजग और चिंतनशील शिक्षक होने के नाते हमारी यह जिम्मेदारी होनी चाहिए कि जितना हमें विषय पढ़ाने की चिंता है, उतनी ही बच्चों की प्रतिक्रिया पर गौर करने की फिक्र होनी चाहिए कि वे क्यों नहीं सीख पा रहे या कोई एक खास तरह की मुश्किल ज्यादातर बच्चों को क्यों आ रही है? इसका कारण जानने के बाद उस दिशा में काम करने में मदद मिल सकती है।

मगर सबसे पहली शर्त है कि हम उस बारे में सोचना शुरू करें। जब हम सोचना शुरू करते हैं तो शायद हम रास्ते भी खोजना शुरू कर देते हैं। सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि हमें सिर्फ बच्चों में ही गलती नजर आती हैं। हम जो भी करवाते हैं, वह सब हमें ठीक ही लगता है। इस कारण हम वास्तविक कारणों को कहीं पीछे छोड़ देते हैं। यह आश्चर्य की बात है कि इस तरह के मुद्दे कभी प्रशिक्षण या विमर्श का हिस्सा नहीं बनते। स्कूल का काम भाषा और गणित पढ़ाने तक ही सीमित नहीं है। इसे थोड़े बड़े और व्यापक संदर्भों में देखने की जरूरत हैं। केवल पाठ्यक्रम को पूरा करने की औपचारिकता की व्यवस्था ने हमारे बच्चों की रचनात्मकता छीन ली है। उनके भीतर की स्वाभाविक प्रयोगधर्मिता को सोख लिया है। उन्हें खुला आकाश दिए जाने की जरूरत है। बस जरूरत भर की दिशा और विवेक के विकास की पृष्ठभूमि में उनका मददगार बनने की जरूरत है। वे अपनी शिक्षा और ज्ञान का आसमान खुद खोज सकते हैं।