राजेंद्र वामन काटदरे
किसी जमाने में एक शेर बड़ा मशहूर हुआ करता था कि ‘क्या खता हो गई, खत आना ही बंद है, रेलवे हड़ताल है या पोस्ट ऑफिस बंद है’। दरअसल, उस जमाने में संपर्क का एकमात्र साधन पत्र या खत ही थे। आज हर एक के हाथ में मोबाइल है। अब समाचार इधर से उधर कुछ सेकेंड में पहुंच जाते हैं। फिर अगर पत्र जरूरी ही हो या व्यावसायिक पत्र लिखना ही हो तो उसके लिए ई-मेल है। लेकिन आधुनिक दौर में आधुनिक तकनीकी के साथ बदलती दुनिया में भी फिलहाल यह याद किया जा सकता है कि एक जमाना खतो-किताबत का भी था। तब पत्र लिखने और पाने का अपना अलग ही आनंद था। उस जमाने में अशिक्षित लोगों के पत्र डाकखाने यानी पोस्ट दफ्तर के बाहर बैठे मुनीम कुछ पैसे लेकर लिख दिया करते थे। वे लोग बाकायदा डेस्क लगाए डाकखाने के बाहर खत लिखने के लिए ही बैठे रहते थे और यह उनकी आजीविका भी होती थी। पत्र पढ़ने की जिम्मेदारी किसी पढ़े-लिखे पड़ोसी या डाकिये यानी पोस्टमैन भैया की होती थी।

आज पत्रों के उस दौर को याद करने का मतलब यह नहीं है कि ज्यादातर लोगों के निरक्षर रहने को भी पत्रों की संवेदना के साथ सही मान लिया जाए, लेकिन इसे एक संदर्भ के तौर पर देखा जा सकता है। तब ज्यादा लिखना हो या राखी भेजना हो तो लिफाफा चुना जाता था। वरना अंतर्देशीय पत्र थे और फिर पोस्टकार्ड, यानी खुला पत्र होता था, जिसे कोई भी पढ़ ले। यों अंतर्देशीय और लिफाफे भी भाप से खोल कर, पढ़ कर फिर यथावत चिपका कर देने वाले जासूस टाइप के लोग भी कम न थे, जिन्हे दूसरों के पत्र पढ़ने में पता नहीं किस तरह का सुख मिलता था। उन दिनों बुरी खबर देने के लिए जिस पोस्टकार्ड पर पत्र लिखा जाता था, उस पोस्टकार्ड का एक कोना फाड़ दिया जाता था। अगर कटे कोने वाला पोस्टकार्ड किसी के घर पहुंच जाते तो उसे पढ़ने से पहले ही रोना-धोना शुरू हो जाता था।

अति आवश्यक संदेश पहुंचाने के लिए टेलीग्राम या तार भेजा जाता था, जिसका जल्द से जल्द मिलना सुनिश्चित होता था। कई बार डाकिया रात में या सुबह-सवेरे तार पहुंचाने आ जाता था। लेकिन ये तार जिसके घर पहुंचता, उसकी कुछ पलों के लिए ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की नीचे रह जाती, क्योंकि ज्यादातर तार आना यानी बुरी खबर आने की आशंका होती थी।

कुछ के लिए नौकरी या दूसरी खुशखबरी भी हो सकती थी। तार की दरें लिखे शब्दों पर तय की जाती थीं, सो ये तार बहुत संक्षिप्त होते थे। तब डाकघरों में एक ‘तार बाबू’ हुआ करते थे, जिनका काम तार पाना और भेजना हुआ करता था। टेलीग्राम की मशीन पर टक-टक टक-टक करते हुए संदेश आते-जाते रहते। बड़े शहरों में डाकखाने से अलग एक तारघर भी हुआ करता था, जिसकी दीवारों पर बधाई संदेशों के लिए कुछ नंबर तय थे। यानी दीपावली की शुभकामनाओं के लिए सिर्फ दस नंबर या नवविवाहितों के लिए पांच या तय नंबर तार बाबू को बताना ही काफी होता था।

डाकखाने से पहले का जमाना तो हरकारों का था, जो किसी राजा के संदेश उनके सूबेदारों तक पहुंचाते या किसी एक राज्य से राजकीय खत दूसरे राज्य तक पहुंचाते। जासूसी करने के लिए कबूतर या बाज का भी इस्तेमाल होता था। ये प्रशिक्षित बाज या कबूतर अपने पंजे में बांधा हुआ संदेश बखूबी पहुंचाते थे। एक चर्चित फिल्म में ‘कबूतर जा जा जा…’ वाला गीत व संदेश पहुंचाने वाला कबूतर शायद बहुतों को याद होगा।

ऐसे ही एक जमाने में कासिद या नामाबर थे, जो इधर के गुलाबी लिफाफे उधर और उधर के जवाबी लिफाफे या खत इधर लाते, ले जाते थे। उस जमाने में लिफाफे देख कर मजमून भांप जाने वाले उस्ताद भी हुआ करते थे। उस जमाने के शायरों ने अपने महबूब, महबूबा के साथ इन कासिद-नामाबरों पर भी खूब शेर कहे। मसलन- ‘ऐ नामाबर, तू ही बता तूने तो देखे होंगे, वो खत कैसे होते हैं जिनका जवाब आता है।’ या ‘कासिद के आते आते खत इक और लिख रखूं, मैं जानता हूं क्या वो लिखेंगे जवाब में।’ एक और शेर भी देखें- ‘जाने क्या लिखा था उन्हें इज्तिराब में, कासिद की लाश आई है खत के जवाब में।’

आज के युवाओं को शायद या डाकघर पता न हो, लेकिन कूरियर सेवा से वे वाकिब होंगे ही, क्योंकि अब कपड़े, किराने से लेकर जूते और मोबाइल तक कूरियर से घर बैठे मंगाए जा सकते हैं या किसी को जन्म दिन का तोहफा या केक भी एक शहर में बैठे-बैठे किसी और शहर में भेजा जा सकता है। जो हो, लेकिन जिन्होंने भारतीय डाक-तार विभाग द्वारा संचालित खतो-किताबत वाला जमाना देखा है, वे ही पत्र पाने-भेजने के आनंद की अनुभूती जानते-समझते होंगे।

इसी तरह के भावों के उतार-चढ़ाव के बीच कभी यह लिखा था कि ‘बिटिया की चिट्ठी आई है, हृदय पुन: भर आया है/ आंसू से अक्षर फैले जो उनका अर्थ लगाने दे।’ हो सकता है कि आज मोबाइल और इंटरनेट की दुनिया में गुम पीढ़ी को इन भावनाओं का सिरा समझना जरूरी नहीं लगे, लेकिन मुझे आज भी उन खतों में छिपे शब्दों की संवेदनाएं जिंदा लगती हैं।