अशोक संड

उत्सवप्रियता अपने देश में कोई अनहोनी वृत्ति नहीं है। आनंद को साक्षी स्मृतियां बनाने और समाज को आपस में जोड़े रखने के लिए हमारे तमाम व्रत-त्योहार, पूजा हर मौसम में मनाए जाते हैं। उत्सव चेतना का स्वभाव है, उसे अगर पवित्रता के साथ युक्त कर दिया जाए तो वह पूर्ण हो जाता है। केवल मन शरीर ही उत्सव नहीं मनाता, बल्कि चेतना भी उत्सव मनाती है। जीवन रंग-युक्त हो जाता है। होली रंगों का त्योहार है जो दशार्ता है कि यह संसार कितना रंगमय है।

राग और रंग मिल जाए तो उस आनंद की कल्पना से आह्लादित हो जाता है मन। फागुन में और विशेषकर होली में राग और रंग दोनों शिखर पर होते हैं। यही हमें रंगों की सुध दिलाता है। फागुन की आहट सुनने के लिए कान नहीं, मन चाहिए। गीतकार यश मालवीय कहते हैं- ‘फागुन के दिन आ गए हंसे खेत-खपरैल/ एक हंसी में धुल गया मन का सारा मैल।’ फागुनी बयार चलते ही हरी फसल सुनहरा आकार लेने लगती है। एक खेत की देखा-देखी दूसरा खेत पक कर अपना शीश उतरवाने के लिए आकुल हो जाता है।

प्रकृति की तरह हमारी भावनाओं और संवेदनाओं का भी रंगों से संबंध है। हर रंग कुछ न कुछ कहता है। मनुष्य रंगों का एक फव्वारा है जो बदलते रहते हैं। लाल रंग रिश्ते की सुर्खी की पहचान कराता है तो अलग संदर्भों में यह खतरों की राह का संकेत भी है। त्याग के लिए केसरिया और ज्ञान का जामुनी। शांति और मौन का पर्याय सफेद तो गुलाबी का उत्सव और हरे का विस्तार। हरे-भरे रहने की सहज कामना। नीले की छटा अलग। सिर पर फैली नीली छतरी सुरक्षा की गारंटी देती है। कौंध रही हैं पीले रंग की आभा पर खेतों में सरसों के पीलेपन की समृद्धि को लड़कियों की हथेलियों से जोड़ती माणिक वर्मा की पंक्तियां- ‘इस बरस खेतों में फैला इस कदर सरसों का रंग / गांव की सब लड़कियों के हाथ पीले हो गए।’

समय के साथ और बंदिशों के चलते नीरस और बदरंग हो गया होली का त्योहार। पड़ोसी भी जान जाता है कि हम कितने गहरे पानी में हैं। एक बेपरवाह गृहस्थ को आटे-दाल का भाव भले न पता हो, मैदा-खोये का भाव अवश्य पता चल जाता है। गुझिया संभल-संभल कर खानी पड़ती है। छवि धूमिल न हो, इसलिए श्रद्धा खिलाने तक सीमित। होली की पहचान ही कुछ अलग हो गई है। दारु(ण) कथा का उल्लेख न भी किया जाए तो साल भर की मानसिक भड़ास निकालने का मौका। पूरे साल का गुबार निकाल लो गुब्बारा फेंक कर। इसके लिए कुछ और वजन के बराबर बेशर्मी की ही आवश्यता।

होली औए ईद आलिंगन के साथ जूते और कपड़ों के पर्व हुआ करते थे। अब दो गज की दूरी ने इसकी गरिमा पर निराशा का रंग फेर दिया। व्यथित होकर सूर्य कुमार पांडेय ने लिखा हैं- ‘जब से नेट वाला हुआ होली का त्योहार, रंग खेलने के लिए ढूंढ़ रहे हम यार/ सब अपने में मस्त हैं, जाएं किसके द्वार, खुद को रंग सेल्फी लई मना लिया त्योहार।’ रंग और गुलाल छोटी चीज हो गई। जो चीज उछली जाती है, हम आप अच्छी तरह जानते हैं। सोच में सूनापन। बदरंग हो गए हैं सभी रंग। हरा रंग नजर आया नहीं कि वह ईर्ष्या भाव और संप्रदाय विशेष के रूप में देखा जाने लगा, थाली के लुढ़कते बैंगन ही बैंगनी होते हैं, पीला मनमोहक रूप पीले चेहरों में बदल गया। जहां तक जलाने का सवाल है, हम बहुत कुछ आगे बढ़ गए है। हम अपनी खुशी के लिए जलाते ही नहीं, आंच भी सेंकते हैं। महानगरों की जाने भी दें, नगरों तक में अब न रंग बरसता है और राग तो मानो जुबान से गायब ही हो गई है।

स्मृतियों के भी रंग होते हैं। बीते दिनों को याद किया जाए तो पिछले दो बार से महामारी के भय से फीकी-सी बीत रही है होली। प्रतीत होता है अपनी होली भी पराई होली। सूचनाओं का भय फिर मजा किरकिरा कर रहा, मतभेद, मनभेद तज गले लगने वाले पर्व पर, जिसमें अग्रिम क्षमा याचना के साथ समस्त हुड़दंग माफ हो जाता है, इस बार भी दूरी बरतने के नियम का पालन करना पड़ेगा। संबंध-सेतु फोन… लोक गीतों का भागवत प्रभाव लुप्त। ‘सरौता कहां भूल आए प्यारे नन्दोइय्या…’ के बजाय फिल्मी कलाकारों के कंठों से रंग बरसता है।

प्रसंग उल्लास और उमंग के त्योहार होली का इस कारण ‘हमारे समय में’ कहने वालों की जमात में खड़े हो एक कवि को कहना पड़ा- ‘मोबाइल संदेश की दिन भर लगी कतार/ रंग दे घर आकर मुझे कहां गए वो यार।’ एक वह भी वक्त था जब महंगाई और मुफलिसी के मारे उधार पर उतारू लोग भी पिछली बुराइयों को जला कर होली के मौके पर नई उम्मीद और नया विश्वास जगाते थे। अब तो लोग हंसने के बजाय हंसी उड़ाने में लगे रहते हैं। मनीषी विद्यानिवास मिश्र की वेदना भी छलक पड़ी थी इस बदलते स्वरूप पर- ‘फागुन अब फागुन नहीं रहा, ‘मार्च’ हो गया है’। अटपटा लगे तो कृपया बुरा न मानिएगा, क्योंकि होली है!