सरस्वती रमेश

अक्सर लोग कहते मिल जाते हैं कि ‘मैं दूसरों के लिए अच्छा क्यों करूं। अच्छाई करने से मुझे क्या मिलेगा।’ दरअसल, ऐसा कहने के पीछे उनके मन में बैठा कोई न कोई कड़वा अनुभव होता है। पर शायद उन्हें यह पता नहीं होता कि हमारी अच्छाई ही हमारी सबसे बड़ी ताकत होती है। जब हम कुछ अच्छा करते हैं, तो हमारे भीतर सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है।

हमारा अवचेतन मन उस ऊर्जा को ग्रहण करता रहता है। मन में बैठे समस्त नकारात्मक भाव धीरे-धीरे विलुप्त हो जाते हैं। हमारे अंदर प्रेम, ईमानदारी, समरसता, भाईचारा जैसे गुणों का विकास होने लगता है। मतलब, अच्छाई का वितान इतना वृहद है कि उसमें संसार भर के गुण समा सकते हैं।

विचित्र है कि कई बार दूसरों के लिए कुछ करने वालों को घर-परिवार, समाज से फटकार सुनने को मिल जाती है। मगर फटकार या कुछ बुरा सुनने से उनकी अच्छाई छोटी नहीं हो जाती। हमारे एक पत्रकार मित्र हैं। दफ्तर से देर रात लौटते हैं। अक्सर ही उन्हें कोई जरूरतमंद रास्ते में मिल जाता है। वह उसकी मदद करने से पीछे नहीं हटते।

खासकर गरीब लोगों की। मदद के चक्कर में कितनी ही बार वे सुबह घर पहुंचते हैं। उनकी पत्नी इस बात पर अक्सर ही उनसे खफा हो जाती हैं। खरी-खोटी सुना देती हैं। लेकिन मुस्कुरा कर वे कहते हैं, ‘हमारा जन्म अच्छाई करने के लिए ही हुआ है, न कि हर चार साल बाद नई कार खरीदने और उसकी ईएमआइ भरने के लिए।’

दुनिया में न जाने कितने लोग भलाई करने में लगे हुए हैं। कोई चिड़ियों को रोज दाने डालता, तो कोई उनके लिए घोंसले बना रहा है। कोई चोटिल, बीमार जानवरों की मरहम-पट्टी कर रहा तो कोई लावारिस लाशों को श्मशान पहुंचा रहा है।

मुंबई में एक सज्जन हैं आबिद सुरती। उनकी उम्र अस्सी साल है। वे घर-घर जाकर लोगों का नल ठीक करते हैं, जिससे बूंद-बूंद पानी बचाया जा सके। ये कौन से लोग हैं जो अपना सारा जीवन भलाई में खपाए जा रहे हैं। उम्र के इस पड़ाव पर भी लगे हुए हैं। इन्हें कोई विशेष शक्तियां नहीं मिली हैं। बस इन्होंने मन में ठान रखा है, जब तक जीवित रहेंगे, भलाई करते रहेंगे।

किसी ने ठीक ही कहा है- ‘अच्छे कार्य मनुष्य के रक्षक होते हैं। इंसान का सबसे बड़ा शत्रु उसके दुर्गुण हैं।’ देखने को मिलता है कि हम लोग क्रोध, वासना ईर्ष्या, द्वेष जैसे अनेक शत्रुओं से घिरे हुए हैं। कुछ लोग इन शत्रुओं को स्वयं पर हावी होने देते हैं। वे बाहरी शत्रु से रक्षा का उपाय तो कर लेते हैं, लेकिन भीतर के ये शत्रु बने रहते हैं।

भीतर के इन शत्रुओं से लड़ने में सबसे कारगर हथियार हैं हमारे अच्छे काम। फिर भी बहुत सारे लोग जीवन में अच्छे काम के महत्त्व को नहीं समझते और पूरी जिंदगी भौतिक संसाधनों का ढेर लगाने में गुजार देते हैं। वैभव प्रदर्शन में वे सामाजिकता को सिमटा देते हैं। औपचारिकता उनकी जीवन-शैली बन जाती है।

अकूत भौतिक संसाधनों का मालिक होने के बावजूद जो लोग किसी की मदद नहीं करते या दूसरों के हित के बारे में नहीं सोचते, ऐसे लोग खजूर के पेड़ की तरह हैं। खजूर का पेड़ गगनचुंबी होता है। उसका फल इतना दूर रहता है कि लोग उसे प्राप्त नहीं कर पाते। साथ ही वह राहगीरों को छाया भी नहीं दे पाता है।

असल में मानव जीवन का उद्देश्य होना चाहिए अपने मन, वचन और काया से औरों की मदद करना। जो लोग दूसरों की मदद करते हैं, उन्हें कम तनाव रहता है, मानसिक शांति और आनंद का अनुभव होता है। वे अपनी आत्मा से ज्यादा जुड़े हुए महसूस करते हैं, और उनका जीवन संतोषपूर्ण होता है।

जिस तरह मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है उसी तरह हमारे मन का भी एक समाज होता है। यह समाज प्रेम, दया, करुणा सहयोग जैसे भावों से संचालित होता है। ये सारे भाव स्थायी रूप से हर किसी के भीतर होते हैं, किंतु इन्हें जाग्रत करने के लिए इनका आह्वान जरूरी है। आह्वान का सबसे सरल मार्ग है अच्छाई।

अच्छाई करने से न चूकें। जो अच्छाई करने से चूक जाते हैं, वे जीवन से चूक जाते हैं। मशहूर लेखिका एनी फ्रैंक का कहना है- कोई भी इंसान अपने धन और दौलत से नहीं, बल्कि अपने चरित्र और अच्छाइयों के कारण महान बनता है। बुराइयों के तो हम सब बड़ी जल्दी गुलाम बन जाते हैं, मगर अच्छाइयों की बात आते ही यह हमें कठिन काम लगने लगता है।

असल में, गलत मार्ग हमेशा आकर्षक और सरल होता है। जबकि अच्छा मार्ग कठिन। मगर कठिन चुनकर हम जीवन भर सरल बने रह सकते हैं, जबकि सरल चुन कर जीवन भर की कठिनाई मोल ले लेते हैं। इसलिए दास बनना है तो अच्छाइयों का बनें।