सुरेश सेठ
इस प्राचीर तक पहुंचने की इच्छा उनकी नहीं थी। इन प्रासादों के भीतर भी उनका प्रवेश निषेध रहा। फिर भी उन्हें समझा दिया जाता कि यह प्राचीर आपसे दूर नहीं। इस पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी बैठे लोगों के जय-जयकार के नारे लगाते रहेंगे, तो जब वोट डालने का वक्त आएगा तब ये चार दिन की चांदनी का मंत्र-वाक्य सिद्ध करने के लिए आपके दरवाजे पर दस्तक दे देंगे। आप उनसे नहीं पूछें कि इन चंद चांदनी रातों के बाद क्या फिर अंधेरी रात का उपहार है? बरखुरदार, भला इसके पूछने की क्या जरूरत है? यहां अंधेरी रातों के तोहफे नहीं बंटते, यह तो आपकी नियति है। बहुत-सी बातों की आदत तो हो गई है आपको! मसलन, यह कि चिंता न करो, अच्छे दिन आएंगे… सब जन रोटी खाएंगे। बदन पर फटे-चीथड़ों की जगह सज्जनों जैसे वस्त्र पाएंगे। उनके बिना दीवारों के घर अब उनसे रुखसत ले लेंगे। उनके सिर पर छत का चंदोबा बन जाएगा। जिसके फटे सीने से झांकता हुआ चांद उनके साथ हाथ मिलाने नहीं आएगा।
यह सब नहीं मिला। हां, इसका इंतजार करने की आदत अब अवश्य हो गई है। सपनों का बायस्कोप दिखाने वाला अपने ओजस्वी भाषण के साथ आज भी जरूरत पड़ने पर उनकी गलियों का चक्कर लगाने आ जाता है। उसके पास निकट भविष्य में उनका वक्त बदल जाने का संदेश रहता है। लेकिन यह भविष्य कितना निकट है, शायद इसकी खबर उसे नहीं रहती। उनके प्रासादों के बाहर कभी फुटपाथ थे। उनका ठिकाना बन जाते थे, लेकिन स्वच्छ भारत अभियान में इन फुटपाथों पर मैले-कुचैले लोगों का क्या काम? क्यों न इन्हें चंद टूटी झुग्गियों में समेट दो। इन्हें पर्दाकशी करने के लिए इनके बाहर ऊंची दीवारों का परकोटा बना दो। हमारे संपन्न मसीहा यह उभरता-संवरता देश देखने आएंगे। उनकी नजर इन मैली-कुचैली बस्तियों पर नहीं पड़नी चाहिए। उनके सौंदर्यबोध पर आघात लगेगा।
उन्हें सिर्फ यही बताना है कि वे दुनिया के उस सबसे बड़े लोकतंत्र में तशरीफ लाए हैं, जहां अति गरीब जनता की भीड़ हर बार चुनाव दुंदुभि बजने के बाद ईमानदारी के साथ असामाजिक तत्त्वों को भी अपना नया खुदा चुनती है, जिनके दिल में उनका दर्द नौ दिन और अपने भाई-भतीजों का दर्द सौ दिन समाया रहता है। इसी को वे इस देश में समाजवाद की स्थापना का नाम देते हैं, जहां टसुए गरीब के लिए बहाए जाते हैं और माऊंट एवरेस्ट अमीर का उठाया जाता है। यह अमीर संख्या में बहुत नहीं हैं। जनता के धूल-धूसरित आटे में नमक की तरह रहना पसंद करते हैं।
नमक अधिक हो जाए तो उनकी सेहत देश में बिगड़ने लगती है। सेहत बिगड़ती है तो वे बैंकों की सेहत बिगाड़ देते हैं। अपने प्रासादों और प्राचीरों की धौंस से उनका जो खजाना उठा कर अपनी तिजोरी में भरा होता है, उसे अपनी गठरी में समेट कर विदेशों की ओर प्रयाण कर जाते हैं। आजकल कुछ देशों की नागरिकता पैसे के बदले बिकने लगी है। अपना चोला बदलते देर ही कितनी लगती है। बस गंगा गए तो गंगाराम और जमना गए तो जमना दास हो जाते हैं। पीछे जिन्हें छोड़ गए, वे प्रासाद के प्राचीर उनकी प्रतीक्षा करते हैं। वे जिन बैंकों के कोषागार खाली कर गए थे, उनके वजूद लड़खड़ाने लगते हैं। दूर बैठे उनकी चिंता की जा सकती है। चिंता करने में जाता क्या है?
प्राचीर पर बैठा आदमी देश की तरक्की देख कर खुश होता है। देश की आजादी को पौन सदी बीत गई। देश उसी मंथर गति से पुराने नारों को नए कलेवर देने के पथ पर चल रहा है। पहले कहते थे, अच्छे दिन आएंगे, सबके लिए रोटी, कपड़ा और मकान लाएंगे। हर पेट को रोटी और हर हाथ को काम देंगे। फिर लगा कि ऐसे वादे न करो कि जिनके पूरा होने की कोई संभावना न हो। फिर जो लोग यह चिंता करने के लिए शासन की टोपियां आपस में बदल लेते हैं, वे यह चिंता भी करेंगे तो उनके प्राचीर और उनके प्रासाद हिलने लगेंगे।
इसलिए क्यों न ‘दिल को बहलाने को गालिब यह खयाल अच्छा है’ को शिरोधार्य करते हुए उनके लिए खयालों की कोई नई दुनिया रच दी जाए। इस दुनिया में उनके लिए अंतरिक्ष की सैर के नए कालीन बिछा दिए जाएं और मंगल या चांद जैसे ग्रहों की धरती पर उनके रहने के लिए बस्तियां आरक्षित करवा दी जाएं। पहले उन्हें संदेश देते थे, ‘दीनो अरब हमारा, सारा जहां हमारा, रहने को घर नहीं है, हिंदोस्तां हमारा’, लेकिन अब लगता है ऐसे गीतों का श्रवण अमधुर न हो जाए, इसलिए उन्हें क्यों न ‘ब्रांड विजय’ का सपना दिखाएं।
अब दूर देश नहीं, किसी अजनबी ग्रह-उपग्रह पर जा बसने की बातें होती हैं। ऐसी बातें इन प्रासादों से किसी दिलासे की तरह निकलती हैं कि जिनके फुटपाथ भी स्वच्छता अभियान के तहत गरीब के बिस्तर नहीं रहे, वे आजकल या तो अतीत की गरिमा में जीते हैं या भविष्य की कल्पना को अपने टूटे पंखों पर ढो लेने का साहस जुटाते हैं। बीच में भूख परेशान करे तो उसे उपवास की श्रद्धा में तब्दील कर ‘हमारा सब कुछ महान’ के वंदनवार बन जाते हैं।