निर्बल और असहाय को दान देना हर धर्म और संस्कृति में पुण्य कर्म माना गया है। भारत में भी दानवीरों का उल्लेख सम्मान के साथ होता है। लेकिन हमारी संस्कृति दान देने की महत्ता पर केंद्रित है और दान लेने वाले के कुपात्र या सुपात्र होने के प्रश्न पर मूक है। महाभारत की कथा में दानवीर कर्ण द्वारा अपने कवच कुंडल तक उतार कर दान में दे देने का उल्लेख है, जबकि कर्ण जानता था कि ऐसा करने से उसका जीवन असुरक्षित हो जाएगा। कर्ण की दानवीरता उसके जीवन के अंतिम क्षण तक बनी रही, जब दान में देने के लिए कुछ भी नहीं बचने पर कृष्ण के मांगने पर उसने अपना सोने का दांत तोड़ कर उन्हें दे दिया था। दानवीरता की यह पराकाष्ठा कपोलकल्पित मानी जा सकती है, लेकिन प्रश्न उठता है कि क्या कर्ण को सोचना नहीं चाहिए था कि उसका कवच दान में लेने वाले का अभिप्राय या मकसद क्या था?
कर्ण अकेला नहीं था। हमारे अभिलिखित इतिहास में ऐसे अनेक दानवीरों का उल्लेख है जो दान देने में आगा-पीछा नहीं सोचते थे। छठी शताब्दी में जन्मे सम्राट हर्षवर्धन की अद्भुत दानशीलता का उल्लेख चीनी यात्री ह्वेन सांग के संस्मरणों में मिलता है। हर्षवर्धन हर पांच वर्ष पर अपना सारा खजाना दान में दे देते थे। प्रयाग में कुंभ के अवसर पर दान देते हुए एक बार जब उनका पूरा खजाना खाली हो गया तो किंवदंतियों के अनुसार उन्होंने अपने बदन के वस्त्र तक उतार कर दान कर दिए और उन्हें शीत से बचाने के लिए उनकी बहन ने उन्हें कंबल ओढ़ाया। प्रश्न उठता है कि हर्षवर्धन जैसा महान सम्राट भी क्या इस सत्य से अपरिचित था कि अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप। दान देने की उदात्त परंपरा भारतीय जीवन प्रणाली का अंग है।
पर्व-त्योहार मनाने या दिवंगत पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए और उनके प्रति सम्मान दिखाने के लिए दान देने से बेहतर और कोई तरीका नहीं माना जाता है। लेकिन दान किसको दिया जाए, इसके विषय में सोच-विचार करने की परंपरा हमारे देश में कम ही दिखती है। दान मांगने वाले ने वांछित दान न पाने पर श्राप दे दिया, ऐसे कई पौराणिक आख्यान हैं। ऐसे श्राप देने वालों के कुपात्र होने की चर्चा हमारे कितने आख्यानों में है?
कवि रहीम भी एक ओर तो कहते हैं कि ‘रहिमन वे नर मर चुके जो कहिं मांगन जांहि’। लेकिन अगली ही पंक्ति में यह भी कह डालते हैं कि ‘उनते पहले वे मुए जिन मुख निकसत नाहिं’। यानी हर हालत में मांगने वाले जबर्दस्ती का ठेंगा देने वाले के सिर पर होता है। दान के पीछे ‘भय बिनु होय न प्रीति’ की भावना भी दिखती है, जब उग्र और अनिष्टकारी ग्रहों की कुदृष्टि से बचने के लिए दान या पुण्य का सहारा लिया जाता है।
सूर्यग्रहण और चंद्रग्रहण के अवसरों पर राहु और केतु को शांत करने के लिए दिए गए दान से लेकर शनिवार को शनि देवता की वक्र दृष्टि से सुरक्षा प्रदान करने वाला तेल और काले तिल का दान भी ऐसे सुरक्षात्मक दान की श्रेणी में आता है। कुल मिला कर दान देने के बाद एक औसत नागरिक इसकी चिंता नहीं करता है कि उसके द्वारा दिया गया दान किसे मिला और उसका उपयोग कैसे किया गया। इसी मनोवृत्ति का नतीजा है कि सामाजिक सहयोग से तमाम अनाथालय, वृद्धाश्रम आदि स्थापित किए जाते हैं। लेकिन स्थापना के बाद उनके सुचारु रूप से चलाए जाने की सुध नहीं ली जाती।
सार्वजनिक शौचालय बनवा दिए जाते हैं, लेकिन उनमें पानी आने या नियमित साफ-सफाई की व्यवस्था नहीं होती। नागरिक सहयोग से बने बच्चों के क्रीड़ा स्थल में लगे झूले और गरीब कन्याओं को सिलाई-कढ़ाई सिखाने वाले केंद्रों में सिलाई की मशीनें टूटी-फूटी दशा में पड़ी रहती हैं। उपकरणों की खरीद के लिए दान देने वाले भूल जाते हैं कि आगे भी नियमित रूप से उनकी देख-रेख की जरूरत पड़ेगी। दानकर्ताओं के इस तरह भूल जाने के पीछे कौन-सी धारणा काम करती होगी, यह तो वही जानें, लेकिन मुझे लगता है कि वे सोचते होंगे कि एक बार दान का कर्मकांड पूरा कर लिया तो उसका पुण्य प्राप्त हो जाएगा!
सौभाग्य से देश के सबसे समृद्ध नागरिक और घराने भी दान देने की हमारी गौरवशाली परंपरा का निर्वाह करने में पीछे नहीं हैं। देश के कई चर्चित दानवीर मशहूर रहे हैं। पिछले कुछ सालों में कुछ बड़े उद्योगपतियों या कारोबारियों ने भी अपनी अकूत संपत्ति का बड़ा हिस्सा सामाजिक कार्यों के लिए दान में देने की खबरें आईं। ऐसे लोग जब इस तरह दान देते हैं तो उनके द्वारा स्थापित न्यास समाजसेवा को वैज्ञानिक और सुचारु रूप से चलाने में समर्थ होते हैं। लेकिन एक औसत नागरिक की समाज और देश के लिए कुछ करने की इच्छा अक्सर केवल आर्थिक सहयोग देने तक ही सीमित रह जाती है। अच्छा हो कि नेकी कर, दरिया में डालने से पहले हम सोचें कि दरिया क्या इस नेकी की अधिकारी है और बाद में यह भी देखें कि उसमें डाली हुई नेकी किस घाट जाकर लगती है।