कुमार विनोद
वे दोनों लड़के हमारे घर के सामने वाली गली में निर्माणाधीन एक मकान में मजदूरी करते हैं और बतौर चौकीदार रात को भी वहीं पर रहते हैं। साल भर के इस्तेमाल के लिए अभी कुछ ही दिन पहले खरीदी गई तीन क्विंटल गेंहू को अपने घर की पहली मंजिल पर रखे हुए ड्रम में डलवाने के लिए कल देर शाम मैं उन दोनों को थोड़ा मोल भाव करके अस्सी रुपए मजदूरी देना तय कर अपने घर ले आया। इस काम में उन्हें मुश्किल से आधा-पौना घंटा ही लगा होगा। भीषण गर्मी के चलते इतनी ही देर में वे पसीने से तर-ब-तर हो चुके थे। इस दौरान न जाने क्यों मुझे खुद ही लगा कि इस तथाकथित छोटे से काम के लिए भी उनकी शुरुआती सौ रुपए की मांग बिल्कुल जायज थी। शायद इसीलिए मैंने पहले से तय किए गए अस्सी के बजाय सौ रुपए जब उनकी हथेली पर रखे तो उनके चेहरे पर अनायास उतरी खुशी और आंखों में उभरे संतुष्टि के भाव देखते ही बनते थे। जाने से पहले मैंने उन्हें फ्रिज में रखा ठंडा-ठंडा शर्बत पिलाया तो उनके चेहरे पर उभरी सुकून की इबारत स्पष्ट रूप से पढ़ी जा सकती थी। लेकिन इस पूरे प्रकरण में मुझे अपने कलेजे में जो ठंडक महसूस हुई, उसका इकलौता गवाह सिर्फ मैं था।
याद कीजिए, हम अक्सर ही रिक्शा चालकों से महज पांच-दस रुपए कम करवाने के चक्कर में अपनी ढेर सारी ऊर्जा खर्च कर देते हैं। रही बात इन पांच-दस रुपयों की, तो जनाब यह पांच-दस रुपए हमारे लिए तो शायद ही कोई विशेष महत्त्व रखते होंगे, लेकिन दूसरी ओर सुबह से लेकर शाम तक एक-एक करके कई सवारियों द्वारा कम करवाए गए इन पांच-पांच, दस-दस रुपयों की बदौलत कम हुई थोड़ी-सी धनराशि भी उनकी गृहस्थी के लिए मुश्किलें काफी हद तक बढ़ा सकती है। शायद इसी मन:स्थिति से गुजर कर शायर ने लिखा भी है- ‘रिक्शा वाले से छुड़ाया, दो का सिक्का लड़-झगड़; रात भर चुभता रहा सीने में खंजर की तरह’।
रिक्शा पर बैठे-बैठे या फिर अपने गंतव्य पर पहुंच कर भी अगर हमें एक क्षण के लिए भी लगे कि रिक्शा वाले से तय किए गए पैसे वाकई कम हैं और हम खुद ही रिक्शा चालक को तयशुदा पैसों से कुछ बढ़ कर भुगतान कर दें तो इसके परिणामस्वरूप उनकी आंखों में उभरी संतोष की चमक हमें भी सचमुच बहुत संतुष्टि प्रदान कर सकती है।
मुझे याद पड़ता है कि जिस किसी दिन मैं सुबह अपने रूटीन समय से थोड़ा जल्दी उठ जाता हूं तो अपने तयशुदा वक्त पर ही आकर अखबार डालने वाला लड़का उस दिन मुझे न जाने क्यों, देरी से आता प्रतीत होता है। मैं उसे जल्दी पेपर न डालने के कारण डांट भी देता हूं। उसके यह स्पष्ट करने पर कि कभी-कभार पीछे से ही अखबार देरी से आने के कारण वह उन्हें समय पर बांट नहीं पाता, जिसकी वजह से अखबार बांटने के बाद उसे स्कूल जाने में भी देरी हो जाती है, तो मुझे खुद पर ही शर्म आ जाती है। वैसे भी गर्मी, सर्दी, बारिश, मौसम कैसा भी क्यों न हो, बिना एक भी दिन नागा किए ये लोग अपने काम को बखूबी अंजाम देते ही हैं। यह सोच कर भी मुझे अपनी गलती का अहसास होता है।
घर में काम करने वाली बाई किसी दिन जब देर से आती है तो आमतौर पर घर के मालिक उन्हें डांट फटकार लगाते हैं, उस दिन की पगार काट लेने की या फिर काम से छुट्टी करने की धमकी तक देने से बाज नहीं आते। लेकिन जब कभी पता चलता है कि वह तो अपने बीमार बच्चे को डॉक्टर से दवाई दिलवा कर सीधे काम पर ही आ रही है, तो बेहद अफसोस होता है।
ये तो कुछ उदाहरण भर हैं। मेहनत मजदूरी करने वाले लोगों के प्रति हमारा दृष्टिकोण मानवीय हो और हम कम से कम व्यक्तिगत स्तर पर तो इनका शोषण न करें, इसके लिए किसी भी कानून की नहीं, बल्कि खुद में झांकने और थोड़ी देर के लिए ही सही, खुद को उनके स्थान पर रख कर उनके बारे में सोचने की आवश्यकता है। चाहे काम करने वाली बाई हो या रिक्शा चालक, अखबार डालने वाला कोई व्यक्ति हो या घर के बगीचे की देखभाल के लिए माली, गली-मुहल्ले में झाड़ू लगाने वाला सफाई कर्मचारी हो या कॉलोनी का चौकीदार; ये कुछ इने-गिने नाम हैं, जिनके साथ हमारा आत्मीय व्यवहार, इन्हें अपने काम को और भी अच्छे ढंग से करने के लिए प्रेरित करता है। मात्र इनका नाम लेकर पुकारने भर से इन्हें इस बात का पुख्ता यकीन हो जाता है कि इनकी अपनी भी कोई पहचान है और इन्हें अपना अस्तित्व बोध भी हो जाता है।
कुल मिलाकर देखा जाए तो बात सिर्फ मानवीय दृष्टिकोण की है, आत्मीयता के संप्रेषण की है, जिसे आजमा कर हम साधारण मानव से कहीं ऊपर उठ सकते हैं। यों संवेदना के साथ सम्मान और वाजिब मजदूरी लेना उनका अधिकार भी है।