अमरेंद्र कुमार राय
हमारे एक मित्र हैं। नवाब परिवार से हैं। देहरादून में रहते हैं। अक्सर दिल्ली आते हैं। दिल्ली में उनकी कई कोठियां और फ्लैट हैं। पिछले दिनों जब आए तो उनका फोन आया। खाने पर बुलाया। कहा चाणक्य सिनेमा पर आ जाइए। उसी के ठीक सामने मेरी कोठी है। अब दिल्ली में भला ऐसे कोई पता बताता है। दिल्ली क्या, किसी भी शहर में अगर पूरा पता न हो, तो पहुंचना मुश्किल हो जाता है। व्यक्ति का नाम, इलाके का नाम, कालोनी, उसमें भी ब्लाक और फिर मकान नंबर या कोठी नंबर हो तब तो आदमी आसानी से पहुंच सकता है। वावजूद इसके, कई बार दिक्कत पैदा हो जाती है। खुद मेरे ही घर कई लोग किसी दूसरे का पता पूछते पहुंच जाते हैं।
पहले गांवों में ऐसा होता था। गांव छोटे होते थे। हर व्यक्ति हर व्यक्ति को जानता था। करीब-करीब रोज ही सबकी एक-दूसरे से मुलाकात होती थी। कभी काम के बहाने तो कभी बैठकी के बहाने। गांव के किसी व्यक्ति का सिर्फ नाम पता हो तो उसे ढूंढ़ने में कोई दिक्कत नहीं होती थी। और तो और, डाकिया भी सबके घर जानता था। चिट्ठी आने पर उसकी साइकिल टनटनाती हुई ऊबड़-खाबड़ रास्तों को पार करती हुई उसके घर के सामने जा खड़ी होती थी। हां, अगर एक ही नाम के दो लोग हुए तो गड़बड़ हो जाती थी।
एक-दूसरे की चिट्ठियां बदल जाती थीं। ऐसे लोगों की डाक पहुंचाने में डाकिया विशेष सावधानी बरतता था। जैसे अगर कोई डाक कलकत्ता से आई है तो वह सोचता था कि किसके घर के लोग कलकत्ता में नौकरी करते हैं। तब वह डाक वहां देता था। जब लोग लड़कियों की शादी तय करते थे, तो बाराती मंडप (माड़ो) देख कर समझ जाते थे कि शादी वाला घर यह है और हमें यहां जाना है। कुछ बार समझ नहीं आता था, तो लोग गांव के किसी व्यक्ति से पूछ लेते थे। हालांकि यह स्थिति तभी पैदा होती थी, जब बहुत देर हो जाए। वरना तो लड़की के घर वाले ही क्या, पूरे समुदाय और गांव वाले ही बारात के स्वागत के लिए खड़े मिलते थे।
पहले शहरों में डीएम, एसपी और जज के बंगले भी बिना पते के ही लोग जानते थे। कोई भी बता देता था कि वे लोग कहां रहते हैं और वहां कैसे पहुंचा जा सकता है। लेकिन दिल्ली जैसे शहर में तो प्रधानमंत्री का आवास तक लोग नहीं बता पाते। आटो और टैक्सी वालों की बात अलग है। गूगल भी लैंड मार्क जगहों को ही दिखा पाता है। वरना उस इलाके तक पहुंचा कर वह भी इधर-उधर भटकाने लगता है। पहले शहरों में डीएम, एसपी और जज शहर से अलग बीघों में फैली कोठियों में रहते थे। इसलिए उन जगहों को जानना और पहुंचना आसान था। अब तो इनकी कोठियां भी कालोनी की बहुत सारी कोठियों में से एक बन कर रह गई हैं। यह अलग बात है कि उन तक पहुंचने के लिए दिशा निर्देशक दूर से ही बना दिए गए हैं।
मेरे एक मित्र दिल्ली में साथ ही नौकरी करते थे। उन्होंने पहाड़ लौट जाने का फैसला किया। जाते समय अपना पता बता गए। पूरन पुस्तक भंडार, सोमेश्वर। एक बार वहां सुबह-सुबह पहुंचा तो बहुत ठंड थी और छोटे पहाड़ी कस्बे के सारे लोग सो रहे थे। जब एक चाय वाला भट्ठी जलाने आया तो बताया कि पूरन पुस्तक भंडार अभी बंद होगा। दस बजे खुलेगा। दस बजा तो पुस्तक भंडार वाले ने बताया कि मित्र यहां रहते नहीं हैं। यह उनका पत्राचार का पता है। वे यहां से करीब पांच किलोमीटर दूर लखनाड़ी गांव में रहते हैं।
वहां जब टैक्सी से पहुंचे तो टैक्सी वाले ने पहले ही टैक्सी रोक दी। बोला, अब यहां से पैदल जाना है। एक स्थानीय से पूछा तो उसने बताया कि वे जो महिलाएं जा रही हैं, वे उसी गांव की हैं। उनके पीछे-पीछे चले जाइए। यह भी पूछा कि किसके यहां जाएंगे, तो मैंने मित्र का नाम बताया। वह उन्हें जानता था, पर उसने यह भी कहा कि गांव में इस नाम से उन्हें कोई नहीं जानता। यह तो उनके पढ़े-लिखे का नाम है। वहां वे अमुक नाम से जाने जाते हैं।
गांव में अगर किसी का घर ज्यादा भीतर होता है और टेढ़ी-मेढ़ी गलियों से होकर गुजरता है तो बताने वाला व्यक्ति किसी लड़के से कहता है कि ले जाओ इन्हें अमुक के घर पहुंचा आओ। शहरों में तो लोग जल्दी ही कह देते हैं कि मुझे नहीं मालूम। आगे जाकर देख लीजिए। पर गांव की मानसिकता वाले कुछ भले मानुस शहरों में भी मिल जाते हैं। अभी हाल ही में कश्मीरी गेट मेट्रो पर मुझे ऐसे ही भले मानुस मिले। मुझे नेहरू स्टेडियम जाना था, लेकिन जिस स्टेशन से वहां की मेट्रो मिलती वह मिल नहीं रहा था। उस सज्जन ने मुझे वहां तक पहुंचाया और फिर अपने गंतव्य के लिए बाहर निकले।