हेमंत कुमार पारीक
हालांकि शब्दों को कागज पर उतारने के लिहाज से देखें तो इसका बहुत विस्तार हुआ है, लेकिन अब उसमें कलम की भूमिका घटी है। इस बीच कभी-कभी धूमिल सफेद या आॅफ-वाइट रंग का अपना पुराना फाउंटेन पेन स्मृति में आ जाता है। ‘पारकर’ कंपनी की वह कलम मुझे दादाजी ने दी थी। वे मितव्ययी थे, इसलिए मुझे एक महंगी कलम देना मेरी समझ से परे था। मैंने कारण पूछा तो बोले- ‘भूल गया क्या? अखबार में तेरा नाम छपा है। तूने वाद-विवाद प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार जीता है। इस खुशी में यह पेन मेरी तरफ से।’ वही पेन याद आ गया अचानक कुछ समय पहले। सुगढ़ और साफ अक्षरों के नजरिए से प्राथमिक स्कूलों में स्याही वाले पेन का इस्तेमाल वर्जित था। पहली कक्षा से पांचवीं तक अधिकतर काम स्लेट-पट्टी पर खड़िया से होते थे।
जहां तक मुझे याद है, बोर्ड परीक्षा के पहले कलम चलाने की इजाजत मिल जाती थी। लेकिन एक स्लेट और खड़िया बहुत सारे कामों में उपयोगी थी। कॉपी और भारी बस्तों से निजात मिल जाती थी। खर्च भी बचता था। लेकिन कलम हाथ में आते ही धीरे-धीरे हमारा बस्ता भारी होने लगता। माध्यमिक कक्षा में आते-आते हर किसी की जेब में नीली स्याही वाली आकर्षक कलम चमकने लगती थी। उस दौर में बहुत कम कंपनियां कलम बनाती थीं। उनमें पारकर कंपनी की कलम सर्वश्रेष्ठ मानी जाती थी और मांग के हिसाब से वह कीमती भी होती थी। लेकिन आजकल कई वजहों से वह देखने में नहीं आती। रिफिल वाले एक से बढ़िया और डिस्पोजिबिल कलम बाजार में मिलने लगी हैं। कीमत भी इतनी कम कि रिफिल की कीमत में कलम। आज बाजार कई तरह की कलमों से भरा पड़ा है। सस्ती भी इतनी कि एक-एक रुपए में मिलने लगी हैं। लेकिन जैसे-जैसे कंप्यूटर पर निर्भरता बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे कलम के खरीदार कम होने लगे हैं।
हालांकि फाउंटेन पेन के साथ एक दिक्कत जरूर थी। गरमी के दिनों में यूनिफार्म की जेब में रखने पर उसकी स्याही फैल जाती थी। इसके उलट होली के पहले से कलम ‘मोबाइल पिचकारी’ का काम भी करती थी। जिस विद्यार्थी को निशाना बनाया जाता था, उसे पता भी नहीं चलता था कि उसे किसी ने रंग दिया है। कलम निकाली और स्याही छिड़क दी। उससे पीठ पीछे यूनिफार्म पर नीली स्याही की एक पेंटिंग जैसी बन जाती थी। लेकिन बाजार में रिफिल वाली पेन आने से फाउंटेन पेन बीते दिनों की कहानी हो गई। आजकल कुछ खास जगहों पर ही दिखाई देती है, लेकिन पारकर की वह कलम मैं कभी भूल नहीं पाया।
एक दिन पुराने शहर में घूमते हुए मेरी नजर एक दुकान पर पड़ी। दुकान के फ्लेक्स बोर्ड पर बड़े आकार में फाउंटेन पेन का चित्र बना था और बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था- फाउंटेन पेन! मैं चकित था। शहर में फाउंटेन पेन की दुकान! जैसे मरुस्थल में पानी की एक बूंद! लोग स्याही वाली पेन भूल चुके हैं, शायद इसलिए आश्चर्य हुआ। मैं सोचने पर मजबूर था। उस दुकान को देख कई सवाल जेहन में कौंधने लगे। सोचता रहा कि वह दुकानदार क्या कमाता होगा! कहीं वह पागल तो नहीं हो गया। मैं दुकान पर जा खड़ा हुआ। वह मुस्कराते हुए बोला- ‘पेन चाहिए?’ मैंने कहा- ‘मैं तो यह सोच रहा हूं कि इस जमाने में जब लोग स्याही वाली पेन भूल चुके हैं, आपका गुजारा कैसे चलता है? आसपास सारी दुकानें मोबाइल की हैं।’ वह बोला- ‘साठ साल से मैं यही धंधा कर रहा हूं। आज भी अच्छा-खासा कमा लेता हूं। स्याही वाले पेन अब भी बरकरार हैं। बड़े-बड़े लोग खोजते-खाजते आते हैं मेरी दुकान।’ इतना कह उसने अलग-अलग गुणवत्ता वाले कई पेन के डिब्बे मेरे सामने रख दिए। मैं ऊहापोह में पड़ा उनमें से आॅफ-वाइट रंग का कोई सस्ता-सा पेन खोजने लगा।
पिछले दिनों अखबार में केरल सरकार के ग्रीन प्रोटोकॉल के बारे में पढ़ा। एक युवा महिला के ‘पेन-ड्राइव’ अभियान के तहत केरल सरकार स्कूलों और दफ्तरों में स्याही वाले पेन अनिवार्य करने जा रही है। केरल देश का सबसे बड़ा साक्षर प्रदेश है। लाखों विद्यार्थी पढ़ते हैं। एक माह में हरेक विद्यार्थी औसतन दो रिफिल वाले पेनों का इस्तेमाल करता हो तो इस लिहाज से रिफिल वाले पेनों की संख्या करोड़ों में हुई और इनसे निकले प्लास्टिक के कचरे की कल्पना करें तो यह पर्यावरण के लिए बेहद चिंताजनक विषय है। केरल तो एक राज्य है छोटा-सा। पूरे देश के बारे में सोचें तो आने वाले समय में यह प्लास्टिक का कचरा विकराल रूप धारण करने वाला है। ठीक वैसे ही जैसे ‘कैरी बैग’ यानी प्लास्टिक की थैलियां और पानी के पाउच या पानी की प्लास्टिक बोतलें। इस हिसाब से हमें जल्द ही इनके पुनर्चक्रण के विषय में सोचना चाहिए। वरना कहीं ऐसा न हो कि इस प्लास्टिक कचरे के ढेर में हम सब दब जाएं!