उस दिन जैसे ही आंख खुली, मैंने अपना सिर कंबल के घुप अंधकार और मासूम गरमाहट से बाहर निकाला और खिड़की की तरफ नजर दौड़ाई थी। परदे रात को ही हटा दिए थे। भोर के अचकचे में कुछ रोशनी आ गई थी और निर्मल बर्फ पड़ रही थी। कंबल से पैर निकाल कर जैसे ही पत्थर के फर्श पर रखा, ठंढ ने शरीर और अंतर्मन, दोनों को हिला दिया। बदन में सिहरन की एक लहर दौड़ गई। खिड़की तक चल कर आया तो नजर आने लगा था एक पहाड़ी झबरीला कुत्ता, जो चीड़ के पेड़ों के बीच पड़ी बर्फ के बीच से अपना रास्ता बनाता हुआ पेड़ों की भीड़ में गुम हो गया था कुछ क्षणों के बाद।
सामने की सड़क, खड़ी गाड़ियां, आगे का छोटा-सा सपाट मैदान और उससे परे चीड़ के पेड़, सब बर्फ की सफेद चादर से ढंके थे, अलसाए हुए, चुपचाप खड़े थे। चीड़ के पेड़ यों जान पड़ते थे जैसे असंख्य छाते हों, लेकिन बंद। बस कोई आकर अगर उन छातों को खोल देता तो वहां बर्फ पड़नी बंद हो जाती। छाते बंद थे, इसलिए बर्फ की मोटी चादर के अलावा जरा-सा ही कुछ नजर आ रहा था।
बर्फ का पड़ना तेज हो गया था और दृष्टि ज्यादा दूर तक नहीं जा पा रही थी। ऐसा प्रतीत होने लगा था जैसे चारों तरफ सफेद अंधेरा छा गया हो। तेज हवा खिड़की के शीशों को बलपूर्वक झकझोर रही थी। हवा के साथ-साथ हिलते हुए एक पेड़ की डाल बार-बार मेरी खिड़की से टकराती जैसे ठंड से बचने के लिए अंदर आने का निमंत्रण चाहती हो। शीशों का कांपना सुना जा सकता था, महसूस किया जा सकता था। खिड़की तो बंद थी, लेकिन बाहर की उस हवा की आवाज सुनी जा सकती थी, जो एक पागल हाथी की तरह हर उससे टकरा रही थी जो उसके रास्ते में पड़ रहा था। हवा के साथ कटी-पतंग की तरह बेकाबू बर्फ आकर खिड़की के शीशों से टकराती, फिर कांच से फिसल कर नीचे गिर जाती थी। मैदान के बीच लगा झूला हवा के साथ अपनी ही धुन में झूल रहा था जैसे कोई झुला रहा हो। बर्फ बैठी थी झूले की पटरी पर, हवा सखी की तरह उसे झुला रही थी।
बर्फ पड़नी कम हुई तो दूर एक पत्थर से बना छोटा-सा घर नजर आने लगा था जो पिछली शाम को टहलते हुए रास्ते के एक किनारे देखा था। लकड़ी और पत्थरों का बना हुआ छोटा-सा घर था वह, जैसा अक्सर फिल्मों में पहाड़ी घर दिखते हैं। वह घर अपनी तरफ आकर्षित कर रहा था मुझे, जब मैं टहलते हुए उसके बगल से गुजर रहा था। उस घर को लकड़ी के छोटे खभों पर बांधे गए जंग लगे कटीले तारों से घेरा गया था। एक पगडंडी-सी थी उस घर के दरवाजे तक और पगडंडी के दोनों तरफ पत्थरों की कतार बिछा कर कोई बताना चाह रहा था कि घर तक का रास्ता उन पत्थरों की कतार के बीच का था। जिस किसी का भी वह घर हो, वह चाहता था कि आने वाला उस रास्ते से चलता हुआ आए जो उसने बनाया था। क्या कोई और प्रयोजन था उन पत्थरों का? या बच्चों ने यों ही खेल-खेल में उन्हें वहां रख दिया था? नहीं जानता!
पर अब तो सारे पत्थर बर्फ के नीचे दब गए होंगे। उस घर तक, जिसे मैं पिछले कुछ मिनट से देख रहा था, वहां अब कैसे जा पाऊंगा मैं! घर तक की पगडंडी तो पत्थरों की कतार के बीच में थी? उस घर के आसपास तक तो जाया जा सकता था। दरवाजे पर दस्तक भी दी जा सकती थी। मगर जब रास्ता बनाया गया था तो शायद उसी से चल कर जाना आवश्यक हो! शायद यह आवश्यक हो कि आने वाला पत्थरों के बीच से चलता हुआ आए और तब दरवाजा खटखटाए। शायद कोई तिलिस्म हो! ऐसा तिलिस्म कि पत्थरों के बीच से चल कर जाने के बाद ही खटखटाने पर दरवाजा खुले! या शायद गृहस्वामी की अपनी प्रभुता दिखाने का यह एक जरिया हो, जिससे वह आने-जाने वालों को कुछ पल के लिए ही सही, जाने-अनजाने में अपनी इच्छा और आज्ञा के अनुसार चलाता हो! नहीं जनता सत्य क्या था!
उस घर की चिमनी से निकलता धुआं बता रहा था कि वहां कोई था! बर्फ पड़नी फिर से तेज हो गई थी और वह घर सफेद अंधेरे में दृष्टि-पथ से ओझल हो गया था। यह सोच कर मन मसोस कर रह गया कि पगडंडी के किनारे के पत्थरों की कतार बर्फ के और नीचे दब गई होगी, शायद मेरे लौटने के दिन तक बर्फ न पिघले। शायद उस पगडंडी पर चलता हुआ मैं उस घर तक न जा पाऊं और शायद ही मैं वह दरवाजा खटखटा पाऊं!