सन्नी कुमार

प्रौद्योगिकी विकास के कुछ नुकसान तो हैं ही, पर साथ ही हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि इसने कला की अभिव्यक्ति को नए आयाम प्रदान किए हैं। खासतौर पर अगर हम थियेटर में प्रदर्शित होने वाली फिल्मों के बरक्स विभिन्न आॅनलाइन मंचों पर रिलीज होने वाली ‘वेब सिरीज’ की बात करें तो अंतर साफ दिखता है। भारतीय सिनेमा के दौर में वेब सिरीज एक बिल्कुल नए तरह का चलन है। इसमें क्षमता है कि यह फिल्मी दुनिया को बुनियादी रूप से बदल दे। बुनियादी इस रूप में कि अब कला के दृश्य अभिव्यक्ति के रूप में फिल्म का एक ‘विकल्प’ तैयार हो गया जो विशाल पूंजी और मुंबइया नेटवर्क के कॉकटेल से निर्मित बासी संसार के विरुद्ध एक ‘ताजी’ दुनिया रच सकता है। ताजगी का यह मसला विशुद्ध कलात्मकता से राजनीतिक सरोकार और सामाजिक पक्षधरता तक विस्तारित हो सकता है। यह भी संभव है कि वेब सिरीज भी फिल्मी दुनिया की ‘बुराइयों’ से ग्रस्त हो जाए और दोनों के बीच बस प्रौद्योगिकी का अंतर रह जाए। इसका मूल्यांकन तो भविष्य ही करेगा, लेकिन हम वेब सिरीज के रूप में एक नई सिनेमाई प्रवृत्ति के कुछ पहलुओं पर चर्चा कर सकते हैं, खासतौर पर इसके विषय-वस्तु और इसको सेंसर किए जाने के दायरे में लाने के संबंध में।

वेब सिरीज के विषय-वस्तु पर किसी भी चर्चा के पहले हमें इसकी एक खास प्रकृति को ध्यान में रखना चाहिए कि सार्वजनिक होने के बावजूद यह निजी रूप में हम तक पहुंचता है। यानी थियेटर में फिल्म प्रदर्शन के दौरान एक ही समय सैकड़ों लोग साथ-साथ फिल्म देखते हैं। इसके विपरीत वेब सिरीज एक बार में एक व्यक्ति को लक्ष्य बनाता है। सिनेमाघर के ‘सार्वजनिक दायरे’ के विपरीत वेब सिरीज को हम आप अपने ‘निजी स्पेस’ में लैपटॉप या मोबाइल जैसे निजी उपकरणों के माध्यम से देखते हैं। जाहिर है, इस प्रकार यह सार्वजनिक प्रदर्शन के मूल्यों से उस प्रकार बंधा नहीं होता, जैसा कि फिल्मों के मामले में होता है। इसलिए ऐसे में इसे थोड़ी अतिरिक्त कलात्मक छूट मिल जाती है। इसलिए जब वेब सिरीज के विषय-वस्तु में यौनिकता और हिंसा की बहुतायत को आधार बना कर इस पर सेंसर आरोपित करने की बात की जाती है तो हमें उपर्युक्त पहलू का ध्यान रखना चाहिए। आखिर हमारे देश में अश्लील फिल्मों को भी निजी दायरे में प्रदर्शित होने की अनुमति है ही।

वेब सिरीज के विरुद्ध सेंसरशिप के पीछे जो तर्क प्रमुखता से दिया जा रहा है, उसके मुताबिक इसमें एक खास राजनीतिक विचारधारा का पक्षपोषण किया जा रहा है और धार्मिक आस्था को जानबूझ कर चोट पहुंचाई जा रही है। अगर इस बात को मान भी लिया जाए कि वेब सिरीज के माध्यम से एक खास की राजनीतिक प्रवृत्ति के प्रति सहमति पैदा करने की कोशिश की जा रही है, तब भी इस तर्क से सेंसरशिप लागू करने का औचित्य सिद्ध नहीं होता। कला को इतनी वैचारिक आजादी तो होनी चाहिए कि वह फिल्मकार अपने दृष्टिकोण को खुल कर प्रस्तुत कर सके। इसका जबाव दूसरी वैचारिकी पर आधारित सिरीज से दिया जा सकता है। इस प्रकार एक स्वस्थ प्रतियोगिता बनी रहेगी। इसके विपरीत, अगर राज्य को सेंसरशिप का अधिकार दे दिया जाए तो फिर उससे विरोध रखने वाली वैचारिकी के लिए मुश्किलें खड़ी हो जाएंगी। यह कला के दायरे को सीमित करेगा। फिर जहां तक धार्मिक भावनाओं के आहत होने का सवाल है तो हमें धार्मिक आस्था और धार्मिक कट्टरता के बीच के अंतर को समझना होगा। अगर कोई वेब सिरीज धार्मिक कट्टरता का विरोध करता है तो उसे ऐसा करने की कलात्मक आजादी होनी चाहिए। हां, अगर कोई फिल्मकार यदि जानबूझकर धार्मिक भावनाओं को भड़काने की कोशिश कर रहा हो तो उसके विरुद्ध यथोचित कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए।

इसके अलावा, एक सवाल स्वयं-सेंसरशिप की प्रक्रिया के संबंध में ही है। हालांकि वेब सिरीज निमार्ताओं को भी कलात्मक स्वतंत्रता के महत्त्व को समझना होगा और नैतिक मूल्यों पर आधारित स्व-नियमन को मानना होगा, अन्यथा राज्य के हस्तक्षेप को लंबे समय तक रोक पाना असंभव होगा। इसके अलावा, वेब सिरीज के निमार्ताओं को यह भी सोचना होगा कि क्या सिर्फ उत्पाद की बिक्री बढ़ाने के लिए यौनिकता का अश्लील प्रदर्शन कलात्मक आजादी के दुरुपयोग का मामला नहीं है? उन्हें इस पर विचार करना होगा कि जो वेब सिरीज सामाजिक और राजनीतिक धरातल पर ‘अनछुए किंतु जरूरी’ विषयों को नया आयाम दे सकती है, वह पश्चिमी वेब सिरीज की भौंडी नकल तक ही सीमित क्यों होना चाहते हैं? बेशक यह निजी रूप में हम तक पहुंचता है, लेकिन इसका प्रचार-प्रसार सार्वजनिक ही होता है। इसलिए इसका सामाजिक मूल्यों से सुसंगत होना जरूरी है। हर आजादी को गुंजाइश भर ही खींचा जा सकता है, यह बात कलात्मक आजादी का उपयोग करने वालों को भी समझनी होगी।