संसार में गुलाबी नगर के नाम से जाना जाने वाला जयपुर शहर अनेक कारणों से विख्यात रहा है। चाहे वह यहां की वास्तुकला हो, शिल्प कला हो या शहर की बसावट का नक्शा हो। यहां की परंपराएं, रीति-रिवाज और तीज-त्योहार भी इसकी प्रसिद्धि का कारण रहे हैं। इन्हीं अजब पौराणिक परंपराओं की राह पर आज तक चलता हुआ यहां का साप्ताहिक बाजार ‘हटवाड़े’ अत्यंत लोकप्रिय रहा है। आज एक ओर हटवाड़ों का प्रचलन धीरे-धीरे समाप्त हो रहा है, वहीं जयपुर में आज भी यह साप्ताहिक बाजार अपनी रफ्तार को गति दे रहा है। लेकिन उसका वह स्वरूप नहीं है जो डेढ़-दो दशक पहले था। इसके लोकप्रिय होने के दो महत्त्वपूर्ण कारण हैं। एक तो यहां सभी प्रकार की चीजें बाजार से अपेक्षाकृत सस्ती हैं, दूसरे इस पटरी बाजार में वे सब चीजें मिल जाती हैं जिन्हें बाजार में ढूंढ़ना पड़ता है।
कुछ दिन पहले जब मैं हटवाड़े गया। आगे डिब्बे-पीपी लिए एक अधेड़-सा आदमी ग्राहकों से उलझा हुआ था। उसके पास सब प्रकार के डिब्बे थे। कुछ ऐसे भी, जिन्हें मैंने कभी नहीं देखा था। उसे डिब्बों का अजायबघर कहा जा सकता था। ग्राहकों से ज्यों ही वह थोड़ा हल्का हुआ, मैं बातचीत की मुद्रा में उसके पास पहुंचा और पूछा- ‘क्या आप केवल डिब्बों का धंधा करते हैं?’ उसने हंसते हुए कहा- ‘नहीं, मैं तो सेक्रेटेरियट में चपरासी हूं, शनिवार को हाट लगाता हूं। बाकी दिनों में दफ्तर की नौकरी के बाद इनमें ढक्कन आदि लगाने का काम मैं घर पर ही करता हूं।’ फिर वह वहां आकर खड़े हुए ग्राहकों से मोल भाव करने लगा।
मैं आगे सरका। एक चिर-परिचित चेहरा आंखों में आया। वे रामदास काका थे। वे धीरे-धीरे वृद्ध हो रहे थे, लेकिन उनकी सिंधी छवि दिखती है, सफेद कमीज-पाजामे पर टोपी। उनके पास क्रॉकरी का तमाम सामान थे। वे बीड़ी के सुटके के बाद बीच-बीच में आवाज लगा रहे थे- ‘बारह रुपए दर्जन, बारह रुपए दर्जन।’ पता नहीं इस शहर में कितने कप प्रति सप्ताह टूटते हैं। दरअसल, बीसियों क्रॉकरी वाले इस बाजार में थे और सभी के यहां भीड़ जमा थी। मैंने उनसे भी हालचाल के साथ यह भी पूछ लिया कि धंधा कैसा चल रहा है तो उन्होंने कहा- ‘धंधा तो ठीक ही है, लेकिन आजकल ग्राहक भाव-ताव और मोल-भाव बहुत करने लगे हैं। बड़ी और तामझाम वाली दुकानों पर जाकर कुछ भी दे आते हैं और यहां हमारा दिमाग खाते हैं।’
मैं मेले में आगे घूमता बढ़ा। बच्चों के रेडीमेड वस्त्र, बिछावन के चादर, महिलाओं के सौंदर्य प्रसाधन, प्लास्टिक की चप्पल और जूते, ग्रामीण कलात्मक जूतियां, लोहे-लक्कड़ में पुराने उपयोग किए हुए सामान, पुरानी पतलून और शर्ट की दुकानों के अलावा दो दुकानें कबाड़ियों की ऐसी भी थीं, जिनमें हर प्रकार की वस्तु कम कीमत पर सुलभ थी।
संभव है कि मेले की यह तस्वीर वहां के अर्थशास्त्र को दर्शा रहा हो, लेकिन वहां की स्थानीयता की जरूरत और लोगों की सीमा के हिसाब से सामानों की उपलब्धता भी बहुत कुछ बता रही थी। मसलन, ठेले पर सामान सजाए एक युवक की जोर की इस आवाज ने मुझे चौंकाया कि ‘जयगढ़ खजाने का माल डेढ़ रुपए में!’ मैं भीड़ को चीरता हुआ ठेले के पास पहुंचा। सस्ते सौंदर्य प्रसाधन, चाकू, छुरी, प्लास्टिक की साबुनदानी, ताश… और इसी प्रकार के बीसियों छोटे-मोटे सामान रखे वह युवक वहां ‘जयगढ़ खजाने का माल’ बेच रहा था। मुझे मन ही मन हंसी आई और ठेले वाले से बोला- ‘जयगढ़ खजाने का माल बेच रहे हो, पुलिस पकड़ लेगी।’ उसने कहा- ‘पुलिस भी कभी पकड़ती है साब! कभी पकड़ा है किसी को? और फिर जयगढ़ खजाने का यही माल है तो ले जाए इसे1’ यह कह कर वह खुल कर हंसा और फिर चिल्लाने लगा- ‘जयगढ़ खजाने का माल डेढ़ रुपए में।’ मैं भी हंसता हुआ आगे निकल गया।
एक दुकान थी पुरानी पत्र-पत्रिकाओं और उपन्यासों की। भीड़ वहां भी थी। कुछ लोग जासूसी और रोमांटिक उपन्यासों का मोल-भाव कर रहे हैं, तो कुछ ऐसे भी थे जो कचरे जैसे दिखते ढेर में से ‘रीडर्स डाइजेस्ट’, ‘ज्ञानोदय’, ‘कादम्बिनी’, ‘नवनीत’, ‘साप्तहिक हिन्दुस्तान’, ‘नई धारा’, ‘मनोरमा’, ‘सरिता’, ‘मुक्ता’ आदि बहुत पुरानी साहित्यिक और गैर साहित्यिक पत्रिकाएं खरीद रहे थे। मेरी भी जिज्ञासा बढ़ी और मैं भी पुरानी पत्रिकाएं टटोलने लगा। कुछ पत्रिकाओं के 1950 से 1960 के बीच के अंक मिले और मैंने बहुत सस्ती कीमत पर उन्हें खरीद लिया। फिर मैंने विक्रेता लड़के से पूछा- ‘क्यों भाई, यह माल कहां से लाते हैं आप?’ उसने बताया- ‘यह रद्दी में से छांटा जाता है।’ मैंने सोचा कि एक यह लड़का है जो साहित्यिक अभिरुचि की पत्रिकाओं का पारखी है और एक वे हैं जो इसे रद्दी के भाव बेचते हैं।
खैर, वहां से आगे बाजार खत्म हो रहा था। शोर-शराबा पहले की तरह बना हुआ था। एक गाय भीड़ में आई और बच्चे को सींग मार कर भाग गई। इक्कीसवीं सदी में शहरों-महानगरों में बाजार की चकाचौंध के बरक्स इस बाजार का बचा होना हमारी हैरत का कारण है। लेकिन कब तक, पता नहीं…!