अनिल त्रिवेदी
लोग यानी खालिस मनुष्य। लोग यानी जिनकी विशिष्ट या अलग पहचान नहीं। लोग भीड़ नहीं, जीवन की पहचान होते हैं। लोगों से कुछ छिपा नहीं होता। वे सब जानते-मानते और पहचानते हैं। दुनिया भर में लोग अपनी सभ्यता को जानते और मानते हैं। लोगों को लोगों के साथ रहने, खाने-पीने, उठने-बैठने, गाने, बतियाने में जीने का जो आनंद आता हैं, वह मनुष्य की जिंदगी की सबसे बड़ी दौलत है। मनुष्य यानी जीवन की बूंद, जीवन का महासागर। जीवन-मृत्यु का अंतहीन क्रम है मनुष्य। लोग यानी जीवन। निरंतर गतिशीलता ही लोगों की जीवनी शक्ति है। लोग जीवन का गुणा-भाग या जोड़-घटाव नहीं करते, सहज रहते हैं। जैसे जल हमेशा तरल रहता है, लोग भी हमेशा सरल रहते हैं।
लोग किसी से न तो डरते और न ही किसी को डराते हैं, फिर भी मनुष्य पर लोगों का डर बना रहता है। यह करूंगा… वह करूंगा तो लोग क्या कहेंगे! लोगों की चुप्पी हो या हल्ला, दोनों ही मनुष्य को बंधन में डाल देते हैं। लोगों से कट कर मनुष्य रह जाता हैं निपट अकेला। लोग जब भीड़ बन जाते हैं तो भेड़-चाल चलने लगते हैं। भीड़ जय-जयकार करने, ताली बजाने या पत्थर फेंकने को तत्पर रहती है। भीड़ की भेड़-चाल मनुष्यता की मौलिकता पर खड़ा सबसे बड़ा सवाल है, जिसका कोई उत्तर न किसी के पास नहीं है।
मनुष्य जीवन भर अपनी पहचान बनाने में ही लगातार उलझा रहता है, पर पहचान बनाने के क्रम में मनुष्य होने का अर्थ ही भूल जाता है। लोग कभी अपनी पहचान बनाने की कोई कोशिश नहीं करते। वे अपने लोग होने का अर्थ भी नहीं ढूंढ़ते। लोग इस धरती पर अनंत समय से लोगों की तरह ही रहते, जीते आए हैं। जैसे हवा है सब कहीं, प्रकाश है, अंधेरा है, आग है, जल में प्रवाह है। इनमें से किसी को कोई जतन नहीं करना होता अपनी पहचान बनाने के लिए। ये अपने आप ही अपनी पहचान हैं।
मनुष्य ने अपनी पृथक पहचान बनाने के जतन में अपने को लोगों से अलग मान लिया है। इसीलिए अधिकतर मनुष्य अपने आप को लोगों से अलग समझने लगते हैं और जीवन भर अपने आपको समझने के बजाय, अपना पूरा जीवन लोगों को समझाने, सुधारने में लगाते थक जाते हैं। मनुष्य लोगों से एकाकार भी नहीं हो पाता। उसका ज्ञान लोगों के लिए अज्ञान ही रहा। लोगों का ज्ञान सनातन है। ज्ञान का भोजन पानी तलाशते रहना जीवन का अंतहीन क्रम है। मनुष्य को समझना चाहिए कि आज तक न जाने कितने मनुष्य इस लोगसागर का अंश बने। अपने पृथक अस्तित्व को जानना या ढूंढ़ना वैसा ही है, जैसा बूंद का सागर से अलग हो जाना। बूंद का पृथक अस्तित्व क्षणिक है। बूंद जब सागर में विलीन हो जाती है तो सागर की शक्ति बूंद में विलीन हो जाती है। मनुष्य भी अपने आप को जब लोगों से एकाकार कर लेता है, तब मेरे-तेरे के सारे भाव और जीवन के सारे अभाव ही लोगसागर में विलीन हो जाते हैं।
लोगों का जीवन निरंतर उतार-चढ़ाव वाला एकदम महासागर की तरह है। लगातार हिलोरें लेता हुआ।लोग सबको हर परिस्थिति में निभा लेते हैं, कभी किसी को न तो उपेक्षित करते हैं न हीं किसी से अपेक्षा करते हैं। इस मामले में धरती के सच्चे बेटे हैं। सबको सहते भी हैं और सबको पालते भी हैं। धरती लोगों का घर है। ऐसा घर जो सभी जीव का बसेरा है। इस जीवंत उपलब्धि के बाद मनुष्य की समूची सोच, जीवन और चाहना धरती के जीवन से एकरूप होकर जीने की ही होनी चाहिए। पर मनुष्य की हिम्मत देखिए। वह धरती के जीवन से प्रतिस्पर्धा करना चाहता है। जबकि मनुष्य से इतर अन्य जीव-जंतु और वनस्पति जगत एक दूसरे के लिए भोजन शृंखला की तरह धरती पर जीवन के क्रम को बनाए रखते हैं।
मनुष्य की एक समझ यह भी है कि धरती पर वही सर्वश्रेष्ठ है। इसी से अधिकतर मनुष्य धरती पर समग्र जीवन से पारस्परिक सहजीवन नहीं कर पाते। धरती पर मनुष्य के जीवन में प्राकृतिक सहजता और समभाव की जगह मेरे-तेरे की भेदमूलक जीवनशैली बढ़ रही है। जबकि मनुष्य की ताकत परस्पर प्राकृतिक सरल लोक जीवन में है। लोगों की सहज जीवंतता ने ही शुरू से इस धरती को असंख्य जीवों का प्राकृतिक घर बना रखा है और अनंत काल तक यह इसी रूप में बना भी रहेगा। यह हमारी अनंत जीवन शृंखला की परस्पर प्राकृतिक समझ है।
मनुष्य की दिक्कत यह है कि वह खालिस मनुष्य की तरह नहीं जी सकता। लोग कभी एकाकी जीवन नहीं चाहते। लोगों की जीवनी शक्ति ही सभी के साथ परस्पर सहजीवन है। लोग अकेले कुछ नहीं करते और अकेले के लिए कुछ नहीं चाहते। यही वह सनातन जीवन क्रम हैं जो लोगों को हमेशा अभूतपूर्व बनाए रखता है और अपने आप को सर्वश्रेष्ठ जीव मानने वाला एकाकी जीवन का हामी मनुष्य अक्सर जीते जी ही भूतपूर्व हो जाता है। जीवन की समग्रता की समझ ही लोगों को खालिस लोगों के रूप में धरती पर जीने का अवसर उपलब्ध कराती रहेगी। धरती हिलमिल जीवन जीते रहने का साधन है, मनुष्य के लोभ-लालच के घमासान का रणक्षेत्र नहीं।