ध्वनि का उपहार अभागे जिराफ को छोड़ कर अन्य सभी प्राणियों को प्रकृति से मिला है, लेकिन मानव की रचनाशीलता खुल कर प्रतिध्वनित होती है ध्वनि से रचे गए शब्दों में। भारत की अत्यंत प्राचीन संस्कृति में जब शब्द लहलहाए तो उस पहली फसल में खिले शायद पहले शब्द ‘ॐ’ की ध्वनि ही संगीत की उत्पत्ति के लिए काफी थी। फिर जब शब्दों की लड़ियां पिरोई जाने लगीं तो वे वैदिक ऋचाओं के रूप में निर्झर की तरह बह निकले। सुव्यवस्थित ध्वनि में पगे हुए शब्दों से रस की वृष्टि को संगीत की संज्ञा दी गई।

सुर, ताल और शब्दों का संयोजन रस की सृष्टि करता है यह उदघाटन सबसे पहले भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में किया गया। इसी परिभाषा को आगे बढ़ाते हुए मध्यकाल में शारंग देव जैसे विचारकों ने संगीत की परिधि में गायन, वादन और नृत्य- तीनों विधाओं को समेट लिया। आधुनिक युग में भातखंडे और विष्णु दिगंबर पलुस्कर आदि महान संगीतकारों ने इन विधाओं में स्वर, ताल और लय- तीनों की उपस्थिति को अनिवार्य बताते हुए गायन को प्राथमिक रूप में संगीत कहा। उन्होंने माना कि वादन जब गायन का अनुरूप एक संगिनी की तरह करता है तो दोनों का सौंदर्य बढ़ाता है और जब कदम से कदम मिला कर चलता है तो गायन में जान डाल देता है। लेकिन यह सौंदर्य भी निष्प्राण रहेगा अगर दोनों के हृदय में ताल की धड़कन न हो। आज शब्द, सुर, ताल, लय- चारों संगीत के आवश्यक तत्त्व माने जाते हैं, लेकिन विभिन्न शैलियों के संगीत में किसी में कोई तत्त्व ज्यादा मुखर होता है तो किसी में कोई और। लोकप्रियता की सीढ़ी पर भी इन तत्त्वों का पायदान बदलता रहता है।

सन 1970 के दशक में जमैका, अफ्रीका और अमेरिका में अश्वेत गायकों ने एक ऐसी गायन शैली को लोकप्रिय बनाया, जिसमे शब्दों के तेज प्रवाह को ड्रम जैसे ताल वाद्यों की जोरदार धड़कन पर चढ़ा कर ताल और लय को सुर के ऊपर हावी करा दिया जाता था। अभिजात शास्त्रीयता के मंच से संगीत को गली-मोहल्लों में उतार लाने का यह अभिनव प्रयोग रैप संगीत के नाम से युवा पीढ़ी के दिलोदिमाग पर चढ़ गया। लोकसंगीत की मिठास से उस शैली का क्या नाता होता, जिसकी उत्पत्ति ही संत्रास से हुई थी।

असमानता और अनुशासन के प्रति विद्रोह की धधक से सुलगती इस शैली को संगीत मानने में पुरोधाओं को संकोच था, लेकिन विद्रोह पर आमादा नई पीढ़ी अपनी भावनाओं को झूठे तकल्लुफ के आवरण में लपेट कर प्रस्तुत करने को राजी नहीं थी। नतीजतन रैप संगीत की शब्द रचना में गाली-गलौच घुस आये। पश्चिम में लोकप्रिय हर विधा और शैली की तुरंत अनुगामिनी भारतीय महानगरों की नई पीढ़ी ने इस चौंकाने वाली आक्रामकता को भी आगे बढ़ कर गले लगाया। इसीलिए 2019 की हिंदी फिल्म ‘गल्लीबॉय’ में दो रैप गायकों की प्रतिद्वंदिता में बड़बोली और आत्मश्लाघा ही नहीं, बल्कि प्रतिद्वंदी को दिए गए अपशब्दों का भी खुल कर स्वागत हुआ। युवा श्रोताओं ने अपशब्दों और आक्रामक आरोपों से सजी इस रैप शैली का ऐसा स्वागत किया, मानो भारतीय संगीत में इसने चांद-सितारे जड़ दिए हों।

इस आयातित संगीत के गुणग्राहक अगर हरींद्र नाथ चट्टोपाध्याय के शब्दों को 1968 में बनी ‘आशीर्वाद’ फिल्म के ‘रेलगाड़ी-रेलगाड़ी…’ वाले गीत में अशोक कुमार की अविस्मरणीय शैली में सुनें तो मान जाएंगे कि पश्चिम की अनूठी भेंट मानी जाने वाली निधि अपेक्षाकृत साफ-सुथरे और सुंदर रूप में हमारे पास पहले से ही मौजूद थी। अमेरिकी डिस्कजोकी तो दो साल बाद 1970 में इसका आगाज कर पाए। रेलगाड़ी गीत का एक छंद देखें- ‘तड़क धड़क, लोहे की सड़क, यहां से वहां, वहां से यहां, छुक छुक छुक छुक! कुएं के पीछे, बाग-बगीचे, धोबी का घाट, मंगल की हाट, गांव का मेला, भीड़ का रेला, टूटी दीवार, टट्टू सवार, छुक छुक छुक छुक!’ क्या इसकी गतिशीलता और धड़कन पाश्चात्य शैली से कम है? मेरे विचार से जयशंकर प्रसाद की प्रांजल कविता ‘हिमाद्रि तुंग श्रृंग से, प्रबुद्ध शुद्ध भारती, स्वयंप्रभा समुज्वला स्वतंत्रता पुकारती’ और श्यामनारायण पांडेय की पंक्तियां- ‘लाल गगन हो गया, मुर्ग मगन हो गया, रात की अमा उठी, मुस्करा प्रभा उठी’ अत्यंत खूबसूरत रैप हैं।

इनसे भी आगे हैं युगों पहले पंचचामर छंद में रचे गए वे एक सौ आठ पद जो भगवान शिव के परम आराधक रावण के ‘शिव तांडव स्त्रोत’ के नाम से जाने जाते हैं। चार चरणों में आठ बार लघु गुरु यानी 1-2, 1-2, 1-2, 1-2 का क्रम दोहराते हुए कोई रैप गायक पूरी स्फूर्ति के साथ गाए ‘जटाटवी गलज्जल प्रवाह पावितस्थले, गलेव लम्ब्यलम्बिताम, भुजंगतुंग मालिकाम, डमड्डमडमन्निनाद वड्डमर्वयं, चकार चंडतांडवंतनोतु न: शिव: शिवम्’ तो रैप संगीत के नामी-गिरामी गायक उसके सामने नतमस्तक हो जाएंगे। अमेरिकी रैप गायक एक बार बोलकर दिखाएं ‘धिमिद्धिमिद्धि मिध्वनंमृदंग तुंग मंगलं, क्रमप्रवर्तित: प्रचंड ताण्डव: शिव:’ तो मान जाएंगे कि रैप का आदिरचयिता रावण था और आदिगीत ‘शिव तांडव स्त्रोत’। यों किसी व्यवस्था में नकार और स्वीकार परिस्थितियों पर निर्भर करता है। लेकिन इन परिस्थितियों में उपजे स्वर और सुर से सजा संगीत किसी सीमा में नहीं बंधता और हर बार नए सफर में यह अपने स्वरूप में कुछ न कुछ जोड़ता चलता है।