अम्ब्रेश रंजन कुमार

मनुष्यों में आपसी जुड़ाव के कई पहलू होते हैं। मसलन सामाजिक, पारिवारिक, व्यावसासिक या पेशेवर जुड़ाव। इनसे इतर कुछ ऐसे संबंध भी होते हैं जो महज जान-पहचान तक सीमित रहते हैं, जैसे दो व्यक्तियों के बीच एक दूसरे का केवल नाम और पता की जानकारी होना। मुंबई जैसे महानगर में तो लोकल ट्रेन या बस में दफ्तर जाते या आते समय किसी निर्धारित वक्त पर रोज ही कई जाने-पहचाने चेहरों का आपस में आमना-सामना होता है, पर जरूरी नहीं कि साथ सफर कर रहे लोगों में आपसी जुड़ाव हो ही।

वैसे भी स्मार्टफोन के जमाने में वाट्सऐप और सोशल मीडिया से लैस फोन की वजह से सफर के दौरान लोगों में परस्पर बातचीत की गुंजाइश में कमी हुई है और लोग आभासी दुनिया के माध्यम से एक-दूसरे से ज्यादा जुड़े रहते हैं। बहरहाल, लोगों का आपस में जुड़े होने रहने का कोई प्रयोजन या साझा उद्देश्य होता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है तो एक समाज में आपस में जुड़ कर रहना उसकी प्रकृति में है।

दरअसल, हमारे बीच जो आपसी जुड़ाव होता है, उसके मुख्तलिफ स्तर हैं। जैसे अधिक जुड़ाव, जिसे दूसरे शब्दों में लगाव भी कह सकते हैं, साझा उद्देश्य के निर्वहन के लिए लगाव या आपसी सहूलियत के स्तर का जुड़ाव आदि। हमारे परस्पर जुड़ाव का पहला मुकाम हमारा परिवार होता है। सर्वप्रथम हम बचपन में अपने परिवार के लोगों से जुड़ते हैं। थोड़ा बड़े होने पर जब खेलने लायक उम्र हो जाती है, पहले परिवार के बच्चे और आस-पड़ोस के बच्चों के साथ जुड़ते हैं। यहां आस-पड़ोस का अर्थ हमारे समाज से है। आधुनिक युग में महानगरों में इसे ‘सोसायटी’ के नाम से जाना जाने लगा है। लोगों के घुलने-मिलने का कामकाज किसी न किसी कारण से निरंतर जारी रहता है।

स्कूलों में भी बच्चों का नया समूह बनता है। यह कितनी विचित्र बात है कि बच्चे भी अपनी शुरुआती कक्षा या स्कूल में आपस में जुड़ने की प्रक्रिया शुरू कर देते हैं। धीरे-धीरे उनमें भी आपसी मेल-जोल का दायरा और शर्तें तय करने की समझ विकसित हो जाती है। अमूमन अभिभावक भी बच्चों में विकास कर रही इस गतिविधि को बहुत नजदीक से नहीं देख पाते हैं। आखिर स्कूलों में बच्चों की अपनी अलग ही दुनिया होती है।

विद्यार्थी जीवन में शुरुआती दिनों में बने समूह भी कक्षा-दर-कक्षा आगे सफर करते हैं और कई दफा सहूलियत के अनुसार इनमें परिवर्तन भी होते रहते हैं। समूह बनाने का यह सफर धीरे-धीरे कॉलेज तक पहुंचता है। इस दौरान आपसी जुड़ाव की हद यह होती है कि मित्रता में लोग सहयोग की हर हद तक जाने को तैयार रहते हैं, क्योंकि ऐसे जुड़ाव के पीछे शायद कोई निजी स्वार्थ या छल-कपट नहीं होती है।

कालांतर में कॅरियर के चयन के आधार पर लोग अपनी अलग-अलग राहें चुन लेते हैं। उम्र ही ऐसी आ जाती है कि सभी अपने-अपने पेशे में लीन हो जाते हैं और वहां फिर उनके नए पेशे में नया समूह बनता है। कार्यालयीन वातावरण या व्यावसायिक या किसी अन्य पेशे में एक बात की पुरजोर तरफदारी की जाती है कि हमें अपने पेशेवर जीवन और व्यक्तिगत जीवन को अलग-अलग रखना चाहिए।

कई संस्थानों में तो कर्मचारियों को इस गुण को आत्मसात करने का विशेष प्रशिक्षण दिया जाता है, इसके लिए बड़े-बड़े विशेषज्ञों का सहयोग भी लिया जाता है। खास बात यह है कि कई पेशेवर अपनी व्यक्तिगत और पेशेवर जीवन को सफलतापूर्वक अलग-अलग रख पाने का दावा भी करते हैं। वे इसमें सफल होते भी दिखते हैं। वहीं कुछ लोगों के लिए इन दोनों के बीच तालमेल बिठा पाना मुश्किल होता है।

दरअसल, व्यक्तिगत और पेशेवर जीवन को अलग-अलग रखना और इनमें व्यवस्थित तालमेल बिठा पाने का हिसाब-किताब ही अलग होता है। इन दोनों को जोड़ने वाली एक अहम कड़ी मानवीय पहलू का होना भी है। वास्तव में यह संवेदनात्मक पहलू है। एक प्रश्न यह उठता है कि संवेदनशील व्यक्ति अपने कार्यालयीन जीवन और पेशेवर जीवन को किस हद तक अलग रख सकता है!

ऐसा सवाल उठना लाजिमी है, क्योंकि जाने-अनजाने में उसके कार्य में संवेदना और भावनाओं की झलक दिख ही जाती है, फिर चाहे वो पेशेवर जीवन हो या व्यक्तिगत। ऐसा इसलिए कि वह अपने पेशेवर जीवन में भी भावनाओं की दखल को रोक नहीं पाता है। जबकि कार्यालयीन नियमबद्धता की एक सोच पेशेवर जीवन में भावनाओं के प्रवेश को खारिज करने की कवायद करती है। यह भी सच है कि इंसान के अपने गुण-दोष उसके कार्य को प्रभावित करते हैं। कार्य करने की प्रकिया के दौरान उसकी विशेषताएं या खामियां किसी से उजागर हुए बिना नहीं रहतीं, उसके लिए इन सबको रोक पाना नामुनासिब होता है।

बात चाहे कार्यालयीन जीवन की हो या व्यक्तिगत की संवेदनाएं और भावनाएं, मनुष्यों को आपस में जोड़ने में अहम भूमिका निभाती हैं। एक जरूरतमंद इंसान को किसी विशेष परिस्थिति में एक छोटा-सा सहारा या सहयोग भी उसे आगे बढ़ने या उसकी स्थिति को सुधारने में बड़ी भूमिका निभाता है। सहयोग की इस भावना के पीछे इंसान की संवेदनाएं ही काम कर रही होती है और इंसान की यह संवेदनात्मक विशेषता किसी स्थान या समय में कोई फर्क नहीं देखती। इसको तो किसी के हित में अपना काम कर देना होता है।