देशकाल अपने साथ नई जीवनशैली, नई दिनचर्या और साथ-साथ कामकाज की नई संस्कृति भी विकसित करता है। इस लिहाज से देखें तो मौजूदा संकट के दौर में सभी लोगों के चौबीस घंटों की जो दिनचर्या बनी है, उसमें बहुत सारे लोगों के लिए कई बातें नई हैं, लेकिन अब वे उसे लेकर अभ्यस्त हो रहे हैं। संक्रमण पर काबू पाने के लिए बाकी उपायों के अलावा कार्यालयों में कर्मचारियों की उपस्थिति और जमावड़े से बचने के लिए कामकाज के विकल्प का जो एक सबसे अहम रास्ता अपनाया गया है, वह है घर से काम करना।
इस क्रम में पूर्णबंदी के दौरान सरकारी और अन्य दफ्तर, मीडिया का एक हिस्सा और निजी कंपनियों के कर्मचारी इंटरनेट पर निर्भर काम घर से करने लगे। दफ्तरों से उन्हें यह सुविधा प्रदान की गई। खासतौर पर सूचना तकनीक पर आधारित कंपनियों और स्कूल-कॉलेज ने आॅनलाइन का विकल्प अपनाया। इससे कई स्तरों पर लाभ भी हुआ। दफ्तर खुलने का खर्च बचा और कर्मचारियों को भी आवागमन आदि में होने वाले खर्च से राहत मिली।
घर से काम करने के फायदे और नुकसान, दोनों थे। जब लोग तय समय पर काम पर जाते थे तो उनका अपना अनुशासन रोज समय पर तैयार होकर और दफ्तर पहुंचने का था। परिवार के अन्य सदस्य भी उनका पूरा ध्यान रखते थे और सहयोग करते थे। अब घर से काम करने में वह व्यवस्था गड़बड़ा गई। दरअसल, इस प्रणाली के तहत अच्छी तरह काम करने का बुनियादी सोच है कि व्यक्ति खुद को मानसिक और शारीरिक रूप से काम के लिए तैयार करे।
हर काम की अपनी व्यवस्था, अपना अनुशासन और अपनी संस्कृति होती है। घर से काम करने वाले के लिए भी यह जरूरी है कि वह वैसी ही मानसिकता बनाए जैसे वह दफ्तर में जाकर काम कर रहा है। यह न सोचे कि वह घर बैठ कर दफ्तर का काम कर रहा है। ऐसा विचार आने पर वह उसी तरह काम करेगा, जैसा वह घर पर बैठ कर अन्य कार्य करता है।
मन व्यवस्थित रूप से तैयार नहीं होगा और न ही सलीके से अपने लैपटॉप, आइ-पैड या स्मार्टफोन के सामने अनुशासित और कर्तव्यनिष्ठ होकर बैठेगा। शर्ट-पैंट की जगह अनौपचारिक तौर पर घर में पहने जाने वाले वस्त्र में ही बैठ कर दफ्तर का काम करने वाले कभी अच्छे काम की छाप नहीं छोड़ पाते।
कुछ लोग ऐसे भी थे जो घर से काम करने के बीच ही घर-गृहस्थी के कामों में हाथ बंटाया। कुछ लोगों ने घर से काम के मौके को घर के काम के मौके में बदल दिया। संभव है वे दफ्तर में भी इसी तरह कामचोरी करते रहे हों और उन्हें काम से बचने की तरकीब और हुनर का अनुभव हो। हालांकि घर के कामों की भी अहमियत है और यह बात भी उन्हें पूर्णबंदी में घर पर रहने से ही पता चली होगी। इस दौरान लोगों को अनेक तरह के अनुभव हुए। कुछ हताश और निराश होकर एकाकीपन से परेशान और तनावग्रस्त रहे, कुछ ने आपदा को अवसर में बदलने का हुनर दिखाया। सफलता के लिए जरूरी है कि आपके पास एक से अधिक विकल्प हों। पलायन रास्ते के सफर का विकल्प नहीं देता।
जो समझदार थे और जिन्होंने अपने विवेक से काम लिया, उन्होंने घर से काम करते वक्त भी पूरा एहतियात बरता और काम के समय घर को भी दफ्तर माना। आनलाइन काम करते वक्त वे संजीदा और काम के प्रति निष्ठावान रहे। इसलिए उन्हें दफ्तर के बजाय घर से काम करते वक्त तालमेल बैठाने में कोई परेशानी नहीं हुई। दुनिया सकारात्मक और कर्तव्यनिष्ठ लोगों के लिए है, बहानेबाजों और काम से बचने वाले आलसी लोगों के लिए नहीं। हम शिद्दत से काम करें और खुशी-खुशी काम पर लौटें, यही हमारा उद्देश्य होना चाहिए। काम चाहे दफ्तर का हो या घर का। यह भी याद रखना चाहिए कि अच्छे काम का पुरस्कार और अधिक काम मिलना ही है।
यों पता नहीं हम पिछले कितने वक्त से इंटरनेट की दुनिया पर निर्भर होते गए और हमें पता ही नहीं चला। लेकिन पिछले कुछ महीनों के दौरान हमने इसका महत्त्व और उसकी उपयोगिता जानी। आनलाइन पढ़ाई से लेकर खरीदारी ही नहीं, सोशल मीडिया के मंचों पर कविता-कहानी और परिचर्चा, पुस्तक विमोचन और गायन ये सभी सीधे प्रसारित हुए। अब लोग इनमें मशगूल होने लगे हैं।
कमी महसूस हुई तो आमने-सामने रूबरू मिल कर बतियाने की। दफ्तर में हर रोज कोई न कोई मिल कर सुख-दुख बांटता ही था और कई बार चाय की चुस्कियों में जमाने भर की बातें होती थीं। आदमी बातचीत का भूखा है और सन्नाटे या खामोशी से घबराता है। उसे आवाज यानी सदा चाहिए। इसकी आंशिक पूर्ति स्मार्ट मोबाइल फोन से जरूर हुई। लेकिन यह वास्तविकता की भरपाई नहीं कर सकता। अकेलापन आदमी को बहुत सालता है और तकलीफ देता है। किसी ने कहा है कि ‘आजादी ये कैसी, जिसने तनहा कर दिया हमको, जो सबको बांध कर रखती थी वो जंजीर अच्छी थी।’ एकाकी जीवन के कष्ट की ओर टीएस ईलियट की विख्यात कविता ‘दी वेस्ट लैंड’ भी इशारा करती है।