दिव्या विजय
आमतौर पर घर-परिवारों और समाज में लोगों की बातचीत में यह कहा जाता है कि ‘पूरा घर तो स्त्रियों का ही है’। यह कहने के मतलब दरअसल यह होता है कि उन्हें अलग कमरे की जरूरत क्यों! मगर ऐसा कहने-मानने वाले नहीं जानते कि दरकार पूरे घर की नहीं, एक कोने की है जो मात्र स्त्री का हो। दफ्तर के काम और घर-परिवार के अलावा भी स्त्रियों के जीवन में कुछ ऐसा हो सकता है, जिसके लिए वे अपना और निजी स्थान चाहें। यह असंभव-सी बात समझी जाती है।
जरूरत चौबीस घंटों के भीतर से झांकती ऐसी खिड़की की है, जहां किसी का दखल न हो, अपने मन का कुछ भी करने में किसी प्रकार की बाधा न हो। चार दीवारें खड़ी कर उनके नाम का एक कमरा बना भी दिया जाए, मगर उनका निज समय अब भी उनके दायरे से बाहर है। भारतीय स्त्रियों के लिए ऐसा एकांत दुर्लभ है, जहां कोई हस्तक्षेप न करे।
इसे सहज नहीं माना जाता है। स्त्रियों के समय पर पहला अधिकार परिवार का माना जाता है, बजाय उनके खुद के। एक पुकार पर उत्तर देना उनसे अपेक्षित होता है। एकांत चाहने वाली स्त्रियों को रूखी और अस्नेही जैसे विशेषणों से नवाजा जाता है। परिवार के लिए वे अनुपयुक्त समझी जाती हैं।
काम के सिलसिले में पिछले दिनों हजारों मील की यात्रा कर मैं थाइलैंड पहुंची हूं। महामारी के मद्देनजर बाहर से आने वालों के लिए यहां की सरकार ने पंद्रह दिन का एकांतवास मुकर्रर किया है। इसमें कोई ढिलाई या फिर भेदभाव नहीं है। सब लोग चिंतित थे कि ये पंद्रह दिन कैसे बीतेंगे। परिवार वाले और मित्र मुझसे सहानुभूति जता रहे थे।
आने वाले दिनों के लिए ऊब मिटाने और मन लगाने के उपाय साझा कर रहे थे, लेकिन मैं उत्साहित थी। मुझे एकांत को साधने के गुर नहीं चाहिए थे। एकांत मनुष्य को स्वयं साध लेता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि मैं अपने परिवार से प्रेम नहीं करती या परिचितों से मुझे लगाव नहीं है।
उनकी महत्ता को किसी प्रकार नकारा नहीं जा सकता, मगर एकांत इतना सुंदर होता है कि इसका स्थानापन्न भी संभव नहीं। बाहरी संसार में कितनी परेशानियां, कितनी कठिनाइयां! कुछ समय के लिए उनके और मेरे बीच है अभेद्य दीवार। नहीं, यह किसी प्रकार का पलायन नहीं है, बल्कि यह तो आधुनिक काल का तप है, जिसके फलस्वरूप प्राप्त होता है मशीनी युग में संवेदनाएं जीवित रखने का वरदान।
एकांत मानो मधुमेह की बीमारी वाले के लिए खास मिठाई का ईजाद। एकांत जैसे निर्जन में झिर-झिर बहता पानी। एकांत जैसे सारी शिकायतों, सारी अपेक्षाओं की चोट को सहला देने वाला पंख, लंबे-कच्चे रास्ते का विश्राम-स्थल। एकांत क्यों आवश्यक है, यह उससे गुजरने के बाद ही जाना जा सकता है।
कमरे की बालकनी से चाओफ्रया नदी दिखाई पड़ती है। उसमें मालवाहक नौकाएं डोलती हुई दिखाई देती हैं। शाम होते-होते रोशनी पानी को बांध लेती है। पार उतरने की प्रतीक्षा करते फेरी पर खड़े लोगों की थकन और क्रूज पर नाचते लोगों का हुल्लड़ सब भेद कर मुझ तक चले आते हैं।
सूर्योदय के समय आकाश कौन-से रंगों से भर जाएगा, सूर्यास्त के समय कौन-से रंग नदी के पानी में अपनी छाया बिखेरने वाले हैं. यह जान कर सुख मालूम होता है। ऊंची इमारतों की जलती-झिपती मानिनी बत्तियों के आगे, तारे आंखें तरेरते हैं। हवा की नमी को, शुष्कता को अंगुलियों से छूकर नापा जा सकता है।
पत्तों की सिहरन नंगी आंखों से देखी जा सकती है। ध्यान लगाने पर स्काई-ट्रेन की थरथराहट महसूस होती है। बाइक के, कार के, ट्रक के हॉर्न में अंतर करना सीख गई हूं। अरसे से रखी किताबें पढ़ रही हूं। ऐसे कई काम पूरे किए हैं जिन्हें टालते हुए अक्सर इतना समय बीत जाता है, जिसका हिसाब हमारे पास भी नहीं होता।
जीभ की तृष्णाएं सिर नहीं उठातीं। मन इधर-उधर नहीं भटकता। कहीं पहुंचने की जिद नहीं। किसी काम को करने की जल्दबाजी नहीं। किसी की आवाज नहीं सुनाई पड़ती, लेकिन टीवी का रिमोट उठाने की ललक नहीं होती। मोबाइल पास रहता है, मगर हाथ उस ओर नहीं बढ़ते। मुफ्त फोन करने की सुविधा होने पर भी मन बात करने के लिए लालायित नहीं होता।
तृप्त रहना एक कला है। बगैर किसी पर निर्भर हुए यह कला सीखना उससे भी बड़ा कौशल। जीवन की वर्ग-पहेली में एक-एक अक्षर ठीक बिठा देता है एकांत, जिससे गुजर कर लौटा जा सकता है, प्रसन्नता से लैस होकर। यह ऐसा गवाक्ष खोल देता है जिससे स्वयं के भीतर झांकना सरल हो जाता है। निश्चित तौर पर यह एकांत मेरा अपना चुना हुआ नहीं था, लेकिन चाहती हूं कि ऐसा समय आए जब हर स्त्री के पास इस एकांत को चुन सकने की सुविधा हो। संसार को त्याग कर, संसार में लौट आने का अधिकार प्राप्त हो।