प्रदीप कुमार राय

बहुतेरे लोग अपने नाते-रिश्तेदारों और अन्य जानकारों के बारे ऐसा कहते मिल जाते हैं कि ‘फलां इंसान बड़ा वहमी-सा है। वह न जाने किस-किस बात का वहम पाल कर रखता है..! उनका तो पूरा परिवार ही वहमियों का है।’ ऐसा कहने के तुरंत बाद अक्सर लोग कहते हैं कि हम तो कभी उनकी तरह वहम नहीं पालते हैं, अपने वहम पर पूरा नियंत्रण है।

खासतौर पर भारत में ऐसा व्यवहार आम बात है। एक रिश्तेदार दूसरे रिश्तेदार को वहम पालने वाला कहता मिल जाएगा, एक पड़ोसी दूसरे पड़ोसी को यह खिताब देता ही रहता है। छोटे दुकानदारों से लेकर बड़े व्यापारियों की वाणी पर तो यह शब्द चौबीस घंटे विद्यमान रहता है। जहां किसी खरीदार ने किसी चीज को खरीदते हुए दो कमियां बताईं, दुकानदार छूटते ही कहेगा कि यह सिर्फ आपका वहम है। भले ही ग्राहक ने सामान में जायज गलती निकाली हो।

यह आम जनमानस में एक ऐसा प्रचलित व्यवहार है, जिसे कोई भी आसानी से महसूस कर लेता है। ये कुछ ऐसे उजले और प्रकट सत्य होते हैं जो सबको बिना किसी उलझाव के एक रूप में ऐसे स्पष्ट नजर आते हैं, जैसे सूरज का उगना। इस विमर्श में यक्ष प्रश्न यह है कि क्या मात्र कुछ लोग ही वहम के शिकार होते हैं और बहुतेरे लोगों को यह छू भी नहीं पाता? या फिर क्या कुछ गिने-चुने सयाने लोगों को छोड़ कर बाकी सब वहम पालते हैं?

वस्तुस्थिति यह है कि बहुत दुर्लभ प्रकृति के व्यक्तियों को छोड़कर हम सभी कम या अधिक किसी न किसी बात को लेकर वहमी होते ही हैं। बस दिक्कत यह है कि अपना दोष या कमजोर पक्ष इंसान को समझ नहीं आ पाता। कहावत है कि ढूंढ़ने से इस दुनिया में सब कुछ मिलता है, सिवा एक चीज के और वह है हमारी अपनी ही गलती।

मूल रूप से वहम हमारे सभी दुखों का मूल कारण है। उसे उचित परिप्रेक्ष्य में समझना हर मनुष्य के लिए जरूरी है। अगर इसके मायाजाल को सही से न समझा जाए, तो जीवन में आनंद रस सूख जाता है।

‘वहम’ मूलत: उर्दू का शब्द है। इसके समांतर शब्द ‘भ्रम’ है। वहम दरअसल उस भाव दशा का नाम है, जिसमें व्यक्ति जिस चीज को सत्य मान बैठा है, वास्तव में वह सच का कण भी नहीं है। बस वह सच का छद्म वेशधारी अंदर बैठकर झूठ का सत्य के रूप में अहसास कराता है। वहीं से इंसान के जीवन में भय जन्म लेते हैं।

‘वहम’ या ‘भ्रम’ को मन से निकालने के लिए भारत में समय-समय पर मुहावरे और लोकोक्तियां बनती रही हैं। मसलन, वहम का शिकार हुए व्यक्ति को अक्सर भारतीय लोकमानस में ऐसे वाक्य कहे जाते हैं- ‘क्यों रस्सी का सांप बनाने में लगे हो… पंख का कबूतर मत बनाओ’, यानी कहीं कबूतर का एक पंख देखकर कबूतर मरने की अफवाह मत फैलाओ।

हम सभी को दूसरे के मन से वहम को उखाड़ने के लिए पुरखों के दिए इन मुहावरों का इस्तेमाल करना चाहिए। यह भाव दशा मनुष्य के जीवन को कितना गहरा जाकर नुकसान पहुंचाती है, इसे समझना जरूरी है। भारतीय मनीषी कहते हैं कि ज्ञान वास्तव में उसी व्यक्ति को प्राप्त होता है या प्राप्त ज्ञान उसी व्यक्ति को लाभ पहुंचा सकता है, जो भ्रम यानी वहम का शिकार नहीं है। भ्रम की स्थिति में ज्ञान खंडित हो जाएगा।

ज्ञान रूपी आईना हमें दुनिया के भेद दिखाता है, किसी वहम की स्थिति में वह खंडित हो जाता है। फिर टूटे दर्पण को लिए घूमने का फायदा क्या?

प्रश्न है कि वहम भरी बात मानव मन में घर कैसे बनाती है? समझने की जरूरत है कि वहम की एक खतरनाक स्थिति तो तब होती है, जब व्यक्ति किसी बड़े कारण से तनाव का शिकार होकर अपनी ‘नीर-क्षीर विवेकपूर्ण’ निर्णय शक्ति को खो चुका हो। मनोवैज्ञानिक पक्ष से देखें तो उसका तो खुद पर नियंत्रण नहीं रहता। वहां मनोचिकित्सक ही उचित उपचार से समाधान दे पाते हैं।

एक अलग श्रेणी उन लोगों की है जो सचेत भाव में हैं। उनका बुद्धि पर पूरा नियंत्रण है। वे किसी परिचित के अधकचरी यानी ऐसी बात बताने से वहम का शिकार होते हैं, जो पुष्ट नहीं है। अगर सभी लोग अन्य लोगों से बातचीत में उस बात का जिक्र न करें, जिसका उन्हें पक्का होने का खुद अंदाजा नहीं है, तो कितने सारे वहम जन्म लेने से पहले मर जाएंगे। पर वास्तव में ऐसा होता नहीं है।

हम सबके मन के कारखाने वहम पैदा करते रहते हैं। उसे निकालने के लिए सबको एक दूसरे की मदद करनी होगी। आखिर स्वस्थ सोच के समाज का निर्माण करने का जिम्मा हम सबका साझा है। अगर हर व्यक्ति अपने संवाद के प्रति इतना-सा सतर्क और ईमानदार व्यवहार अपना ले कि किसी को अपुष्ट बात नहीं बताऊंगा और झूठा शुभचिंतक बनकर किसी के घर-परिवार देह या कारोबार के बारे ऐसी टिप्पणी नहीं करूंगा जो उसके मन में वहम का विष घोल दे, तो इस मसले का आधा हल यों ही निकल आएगा। ऐसा संकल्प हम भी कर सकते हैं।