हरियाणा के जींद जिले के एक गांव की चौपाल पर बैठे सत्तर साल के वृद्ध व्यक्ति ने दूसरे राज्यों से बहू ब्याह कर लाने के मामले में जाति-धर्म-गोत्र आदि के जिक्र पर कहा कि ‘जब बाहर देश तै ऐ लाणी सै तो के काली, के पीली, अर के जात देखणी, वा कहावै तो दूसरे देश की बहू ऐ गी’। यानी जब ‘बाहर देश’ से ही लाना है तो क्या काली, क्या पीली और क्या जाति देखना… वह कही तो जाएगी बाहर देश की बहू ही…! वहां मौजूद चार अन्य बुजुर्गों ने इससे सहमति जताई।

‘बाहर देश की बहू’ कहने से उनका आशय ओड़िशा, नेपाल, झारखंड, उत्तर प्रदेश या देश के अन्य किसी इलाके से हरियाणा में लाई गई उन बहुओं से था, जिन्हें ब्याहने के लिए लड़के वालों को पैसे खर्च करने पड़ते हैं। ऊपर से देखने में ये बहुएं समय के साथ हरियाणा जैसे सामंती सामाजिक परिवेश में रच-बस गई दिखती हैं। गरीब परिवार की इन लड़कियों के सामने और कोई चारा भी नहीं है। हरियाणा में इन बहुओं को ‘मोलकी’ के नाम से जाना जाता है। ‘मोलकी’ यानी लड़की के माता-पिता को पैसा देकर लाई गई दुल्हनें। हरियाणा के बहुत सारे गांवों में ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे, जिनमें ऐसी महिलाओं को दूसरे राज्यों के गरीब इलाकों से लाया गया।

बंगाल के एक छोटे-से गांव से हरियाणा के रोशनपुरा गांव में लाई गई लगभग तीस साल की एक महिला ने मुझे बताया कि उसकी शादी के अठारह साल हो चुके हैं। दो बेटे और दो बेटियां हैं। अपनी बंगाली मातृभाषा लगभग भूल चुकी वह हरियाणवी लहजे में बातें कर रही थी। अब मायके वालों से बात करने में उसे दिक्कत आती है, क्योंकि वे लोग हरियाणवी नहीं समझ सकते। उसके पति के पास आधा एकड़ जमीन है, जिसमें खाने लायक थोड़ा-बहुत अनाज उग पाता है।

दरअसल, बचपन में ही इस महिला की मां का निधन हो गया था। कुछ महीनों के बाद पिता ने दूसरी शादी कर ली। दूसरी मां से दो लड़के और दो लड़कियां हैं। वे सभी मजदूरी करते हैं, तब जाकर दो जून की रोटी का जुगाड़ हो पाता है। समझा जा सकता है कि वह यहां हरियाणा में ‘मोलकी’ बन के किन हालात में पहुंची होगी। अब ‘ससुराल’ में वह अपने बचपन की तरह दिहाड़ी करने नहीं जाती, घर और बच्चों को संभालती है। शुरुआती दिनों में अपने ‘ससुराल’ में उसे काफी परेशानी हुई थी, खासकर खाने-पीने और दूसरी बोली होने के कारण। ‘मोलकी’ के रूप में आई इस महिला के साथ सामाजिक व्यवहार का उल्लेख अलग से करने की जरूरत शायद नहीं है।

इसी तरह, नेपाल की एक महिला का ‘ब्याह’ सात साल पहले रोहतक के नजदीक एक गांव में हुआ था। शादी से पहले वह अपनी ममेरी बहन के साथ पानीपत की एक फैक्ट्री में काम करती थी। वहीं उसके एक रिश्तेदार ने एक ग्रामीण युवक से उसकी शादी तय कर दी। नेपाल में रहने वाले उसके माता-पिता शादी में शामिल तक नहीं हो पाए, क्योंकि वे भारत आने का खर्चा नहीं उठा सकते थे। महिला को अब भी अपना नेपाल ज्यादा अच्छा लगता है। उसने बताया- ‘यहां तो घूंघट निकलना पड़ता है। वहां नेपाल में हम पांचों बहनें पैंट-शर्ट पहनती थीं और खूब घूमती थीं। मगर यहां किसी से ज्यादा बात भी नहीं कर सकती।’ उसका पति पढ़ाई-लिखाई नहीं कर सका और बाद में शराब के नशे में डूबा रहने लगा। जब चालीस साल पार हो जाने और लगातार कोशिश करने पर भी उसकी शादी नहीं हो सकी, तब उसके रिश्तेदारों ने बाहर से बहू लाने की सोची। ठंडी सांस लेकर नेपाल की उस महिला ने बताया- ‘पति शराब पीकर अक्सर मुझे मारता-पीटता है। शादी के सात साल बाद भी कोई बच्चा नहीं होने पर ताने देता है। घर का काम और वृद्ध बीमार ससुर की देखभाल में समय इसी तरह बीत रहा है।’

हरियाणा में दूरदराज के इलाकों से लाई गई इन बहुओं की दशा बहुत मार्मिक है। स्त्रियों के खिलाफ पितृसत्तात्मक सोच और रवैए के साथ-साथ कन्या भ्रूणहत्या के लगातार मामलों ने हरियाणा में न सिर्फ स्त्री-पुरुष अनुपात को बुरी तरह असंतुलित कर दिया है, बल्कि आज यहां लड़कों के लिए दुल्हनें मिलनी मुश्किल हो गई हैं। एक तथ्य यह भी है कि बड़ी तादाद में लड़कियों ने पढ़ाई-लिखाई पर ध्यान दिया है और आज ज्यादातर लड़कियां लड़कों से कहीं ज्यादा पढ़ी-लिखी हैं। कम जमीन वाले, अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे लड़कों से अपनी पढ़ी-लिखी बेटी का ब्याह कोई नहीं करना चाहता। तब ऐसे लड़कों का परिवार दूसरे राज्यों की गरीब लड़कियों की ओर रुख करता है और वहां से अप्रत्यक्ष रूप से उन्हें खरीद कर लाता है। दूरदराज की गरीब परिवारों की लड़कियां एक बार फिर नए शोषण की दुनिया में खड़ी कर दी जाती हैं। दरअसल, इस दुनिया में हर असमानता, भेदभाव, ऊंच-नीच का खमियाजा स्त्री ही उठाती आई है। (विपिन चौधरी)