सरस्वती रमेश
जिस अनुपात में संसार का वैभव प्रदर्शन बढ़ रहा है, हाशिये के लोगों का दर्द भी उसी अनुपात में बढ़ता जा रहा। धनलिप्सा में सना स्वार्थ, सत्तालिप्सा की चालबाजियां, विकास के तमाम दावों के बीच आज गांधी कहीं नजर नहीं आते। हालांकि जो सबसे ज्यादा सुविधाओं में जीता है, वह बात करने के मोर्चे पर अक्सर गांधी की सादगी की दुहाई देता और इस तरह खुद को महान बताता दिख जाता है।
विरोधाभासों का यह सम्मिश्रण संभालते हुए ऐसे लोग संतुलन कैसे बिठा पाते हैं, यह कई बार समझ से बाहर हो जाता है। जिस गांधी को हम आजादी का सर्जक बताते अघाते नहीं, वही गांधी आज अपने ही देश में बुत बन कर खड़े हैं। हर शहर के चौक-चौराहे पर यह बुत दिख जाएगा, लेकिन गांधी कहीं नहीं दिखेंगे। तय मानिए कि आज का भारत न तो गांधी का भारत है और न ही जिस रास्ते पर हम या हमारा देश आगे बढ़ने का दावा कर रहे, वह गांधी का रास्ता है।
दुनिया को राह दिखाने वाला वह संत अब भी विचार मगन हो आत्ममंथन में लीन बैठा लगता है। उसके प्रयोगों को आगे बढ़ाने वाले गिने-चुने लोग भी अब मूक हो चुके हैं। हम हिंसा, अनैतिकता, अराजकता, भ्रष्टाचार, बलात्कार, कामचोरी, दंभ, दिखावा, दमन, शोषण और अमानवीयता से बजबजाते समाज में शान से जी रहे हैं। हमारे कान, मुंह और आंखें इस सब अफसोसनाक हालात को सुनते, बोलते और देखते हैं। मगर इसका विरोध करने का नैतिक साहस नहीं है।
इसके दो कारण हैं। पहला, हम खुद इस शर्मनाक स्थिति का हिस्सा हैं। जब तक हम पवित्र नहीं होते, पवित्रता की बातें बेमानी है। दूसरा हमारे विरोध के तरीके में वह बल नहीं। हम राह रोकेंगे, पुलिस से भिड़ेंगे और सरकारी संपत्ति को जलाएंगे, लेकिन शांति से विरोध करने के लिए जो धैर्य और निष्ठा चाहिए, वह हममें नहीं है। एक तरह से अंधी दौड़ में शामिल हो चुके हैं हम।
गांधी अंधी दौड़ का हिस्सा कभी नहीं रहे। उन्होंने हर बात, हर काम को देखा, परखा, नैतिकता के तराजू पर तोला और तब उसे किया। उनके प्रयोगों पर दुनिया में आज भी बहस जारी है। मगर आज तक कोई सत्य की कसौटी पर कस कर तर्कपूर्ण तरीके से उन्हें गलत करार नहीं दे सका। गांधी निखालिस मनुष्य के गुणों से परिपूर्ण काया हैं, जिन्होंने अपनी कमजोरियों पर अपने अभ्यास से विजय हासिल की। इसलिए उन्हें समझना जितना आसान है, अपनाना उतना ही दुर्लभ। गांधी की नैया के खेवनहार कोई एक नहीं। सत्य-अहिंसा, प्रेम- परोपकार, सहिष्णुता, मनुष्यता सब उनकी पतवार हैं। सत्य के प्रयोग उनके जीवन का सार है।
उनके प्रयोग की बानगी देखिए। एक बार आजादी के आंदोलन के दौरान गांधी जेल में बंद किए गए। वहां का जेलर गांधी से वैचारिक मतभेद रखता था। सजा काटते हुए वे कुछ न कुछ सीखते रहे। गांधीजी ने एक मित्र से जेल में ही चमड़े की चप्पल बनाना सीखा। रिहा होते वक्त अपने हाथों से बनी एक जोड़ी चप्पल उन्होंने जेलर को भेंट स्वरूप दी। जेलर गांधी के इस व्यवहार पर आश्चर्यचकित था। बाद में उसने गांधी को लिखे एक पत्र में कहा, असल में उसने वह चप्पलें अब तक कई बार पहनी। हालांकि वह स्वयं को उन्हें पहनने के काबिल नहीं मानता, इसलिए वह पूरे आदर से उन्हें लौटा रहा है। गांधी ने जेलर के प्रति कोई शत्रुता नहीं पाली, क्योंकि गांधी किसी के विरोधी हो सकते हैं, लेकिन शत्रु कदापि नहीं।
विभाजन के समय बंगाल में फैली हिंसा बेकाबू हो गई। समूचे सरकारी अमले के हाथ-पैर फूल गए। पुलिस ने हथियार रख दिए। तब गांधी ने उपवास के अपने नैतिक हथियार से हजारों लोगों के भीतर दहकती बदले की अग्नि को शांत कर दिया। गांधी पिछली सदी में भी सही थे और आज भी सही हैं और आने वाली अनेक सदियों में अनंत काल तक सही रहेंगे। घोर अमानवीय एवं पर्यावरण विनाश की अवधारणा पर खड़े ब्रिटेन ने भी अपनी संसद के सामने गांधी की मूर्ति लगा यही संदेश दिया है। गांधी दीन-हीन दिख सकते हैं, लेकिन कमजोर कतई नहीं। उनके विचार और विश्वास चट्टान की तरह पक्के हैं, क्योंकि उनके पीछे सत्य की शक्ति है। सत्य जो उन्हें डिगने नहीं देता।
गांधी विपत्तियों के घोर समुंदर और प्रलय की भयावह आंधी में भी मुस्कुराता हुआ सितारा हैं, क्योंकि वे घबराते नहीं। अपनी निर्दोष लाठी टेकते हुए भंवर में कूद पड़ते हैं कि आओ मैं तुम्हें बताता हूं रास्ता कैसे निकलेगा। क्या हम आज गांधी की बातों को सुनने, उनकी राह पर चलने को तैयार हैं? आइए आत्ममंथन करें। गांधी का अनुसरण करने के लिए जिस नैतिक बल की आवश्यकता है, वह किसी में है क्या? अगर नहीं तो क्या हम गांधी की नैतिक शक्ति अपने अंदर उतारने को तैयार हैं? फिलहाल ऐसा लगता तो नहीं, क्योंकि जन-जन के गांधी को दफ्तरों की खंूटियों पर टांग हमने उन्हें पराया बना दिया है। आज सिर्फ उस ‘पराए’ गांधी के महिमामंडन की औपचारिकता निभा रहे हम।