सीखने की ललक संबंधों के आईने में उसे खुद को देखना सिखाती है। कोई सीखने का संकल्प कर ले, तो जीवन के हर कोने में कोई न कोई शिक्षक उसकी बाट जोहता मिलेगा। ऐसे मन के लिए समूची सृष्टि शिक्षक बन जाती है। बदलते समय और परिस्थितियों से सीखना जरूरी भी है और मुमकिन भी।
शिक्षा की दो धाराएं हैं। एक का संबंध सीधे-सीधे जीविका से होता है, जहां शिक्षा के आधार पर हम अच्छी नौकरी, कारोबार करने की योग्यता वगैरह पा लेते हैं। दूसरी है, वह शिक्षा जो जीवन को उसकी समग्रता में हमारे सामने रखती है। सर्वांगीण शिक्षा के नाम पर इसके महत्त्व को कई स्कूल रेखांकित तो करते हैं, पर व्यावहारिक स्तर पर इसकी पूरी समझ अभी निखर कर सामने नहीं आ पाई है।
जीवन एक विराट फलक है, इसमें बहुत कुछ ऐसा है जिसे जीविका से जुड़ी शिक्षा संबोधित ही नहीं कर पाती। जीवन में सुख-दुख हैं, सौंदर्य और भद्दगी है, अन्याय और आम इंसान की अंतहीन पीड़ा है।
कविता है, कुदरत है और अपने-अपने कलह हैं। देह, बुद्धि, भावनाएं हैं, और इनसे भी गहरा एक तल है हमारे व्यक्तित्व का, जिसे हम आध्यात्मिक कहते हैं। हर तल की अपनी प्यास है, अपनी मांगें हैं। क्या आज की शिक्षा इन सभी पहलुओं के प्रति हमें संवेदनशील और शिक्षित कर पा रही है?
मोटे तौर पर देखें तो शिक्षा बौद्धिक लब्धि की ही फिक्र करती है। भावनात्मक लब्धि, कुदरत के प्रति हमारे रिश्ते पर इसने अधिक गौर नहीं किया। किताबी तथ्यों को रट कर उनको इम्तिहान में दोहरा देना प्रज्ञा का एक पहलू भर है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक होवर्ड गार्डनर का एमआइ या ‘मल्टीपल इंटेलिजेंसेज’ का सिद्धांत बड़ा दिलचस्प है, जो कहता है कि इंटेलिजेंस या प्रज्ञा नौ किस्म की होती है।
इनमें भाषा, प्रकृति, संगीत, संबंधों, देह की हरकतों को समझने के अलावा जीवन के बुनियादी सवालों को खंगालने की समझ भी शामिल है। किसी में एक, दो या तीन तरह की प्रज्ञा हो सकती है, किसी में और कम या अधिक। इसलिए परंपरागत आधार पर किसी छात्र को प्रखर और मंदबुद्धि कहने से पहले हमें इन नई खोजों को ध्यान में रखना चाहिए।
गौरतलब है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था संपूर्ण व्यक्तित्व, समूचे मानव की आवश्यकताओं, हर किस्म की प्रज्ञा को ध्यान में रखते हुए नहीं गढ़ी गई है। वह या तो शिक्षक-केंद्रित है, पुस्तक-केंद्रित या कहीं-कहीं सतही तौर पर छात्र केंद्रित। जीवन केंद्रित तो वह बिल्कुल नहीं। जीवन के विविध रंगों और सुरों को अनदेखा, अनसुना करते हुए वह तो सिर्फ मानव के सीमित, एकतरफा विकास में लगी हुई है- जीवन को छोड़, जीविका के सवालों से ही जूझ रही है, उनके अंतर्संबंधों की ओर ताक ही नहीं पा रही।
दो तरह के मन को निर्मित करना शिक्षा का गंभीर दायित्व है- प्रश्न करने वाला और सीखने वाला मन। इसी में शिक्षा का सौंदर्य है। ऐसी शिक्षा छात्र और शिक्षक को एक ही स्तर पर लाकर खड़ा कर देती है। शिक्षक विषय के बारे में बहुत जानकार है, पर जीवन के बारे में उतना ही ज्ञानी और अज्ञानी है जितना कि उसके छात्र।
सृजनशीलता और प्रश्न पूछने वाले मन का गहरा संबंध है। सही शिक्षा हर बात को लेकर सवाल करना सिखाती है। सवाल करना हमारी स्वाभाविक प्रवृत्ति है। जवाब के बजाय हमें सही सवाल की खोज में रहना चाहिए। सही सवाल मन की गहराई तक ले जाता है, जबकि छिछले उत्तर मन को उसकी सतह पर ही कायम रखते हैं। सीखने वाला मन संयमित और मजबूत संकल्प वाला होता है।
उसमें विनम्रता होती है और तभी वह पुरानी बातों और पूर्वाग्रहों को छोड़ कर नई बातें सीख पाता है। उसमें खुलापन होता है। शिक्षक को सजग रहने की जरूरत है कि वे छात्र को प्रतिद्वंद्विता का आदी, सफलता का उपासक और विफलता से डरने वाला इंसान न बना डाले। उसे जीवन की अप्रत्याशित चुनौतियों से जूझना और जीतना तो सिखाए, पर साथ ही उसे नाकामी को हल्के में लेने की क्षमता भी दे।
जीवन की ओर से उसके लिए शाश्वत प्रश्न यही रहेगा कि तमाम शिक्षा और अनुभव के बाद उसके पास प्रेम कितना बचा, कितनी सजगता, कितनी संवेदनशीलता, कितनी गंभीरता बची, कितना संयम और सीखने का संकल्प बचा रह गया। शिक्षा का गहरा संबंध तार्किक मस्तिष्क और समृद्ध प्रेमपूर्ण हृदय, दोनों से है। इनके बीच के स्वस्थ संतुलन के बगैर कोई शिक्षा हमारी व्यक्तिगत और सामजिक समस्याओं को हल नहीं कर सकती।